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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
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बनाया हो क्योंकि साधु के निमित्त से उपाश्रय के बनाने पर साधु को हिंसादि दोष का भागी बनना पड़ेगा।
इस तरह साधु सुसज्जित, रमणीय, स्त्री आदि से संकीर्ण तथा जीवादि की उत्पत्ति की सम्भावना से युक्त स्थान पर न रहकर नगर से बाहर एकान्त अरण्य आदि में रहे। ऐसा एकान्त स्थान ही साध के ठहरने के लिये उपयुक्त है। इससे अहिंसा आदि व्रतों का पालन करने में सुविधा रहती है। अतः जैसे स्थान में रहने से व्रतों का पालन करने में बाधा न आए वही स्थान साधु के ठहरने के लिये उचित है। ग्रन्थ में शय्या-परीषह के प्रसङ्ग में कहा है कि साधु स्थान के सम होने या विषम होने पर घबड़ाए नहीं अपितु सभी प्रकार के कष्टों को सहन करता हुआ अपने कर्त्तव्यपथ पर दढ़ रहे.।' इस प्रकार के एकान्त स्थान में रहना विविक्तशयनासन ( संलीनता ) नामक एक प्रकार का तप भी है।
आहार भोजन के बिना कोई भी कार्य करना संभव नहीं है क्योंकि भोजन से ही इन्द्रियाँ पुष्ट होकर देखने, सुनने एवं विचार करने के सामर्थ्य को प्राप्त करती हैं। अतः साधु के लिए दिन का ततीय प्रहर भोजन-पान के लिए नियत किया गया है। भोजन किन परिस्थितियों में करना चाहिए ? किन परिस्थितियों में नहीं करना चाहिए ? किस प्रकार का आहार करना चाहिए ? आदि बातों का यहां विचार किया जायगा। किन परिस्थितियों में आहार ग्रहण करे : ___ मोक्षाभिलाषी साधु निम्नोक्त छः कारणों के उपस्थित होने पर ही भोजन ग्रहण करे : १. देखिए-प्रकरण ५, शय्या परीषह । २. देखिए-प्रकरण ५, तपश्चर्या ।। ३. वेयण वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छठें पुण धम्मचिंताए ।
___ -उ० २६.३३. तथा देखिए-उ० २.२६; ६.१४; ८.१०.१२; १२.३५; १५.१२; २५.३९-४०; २६.३२; ३१.८.
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