________________
[ ३२४ ]
उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन
निहित है । इन दोनों व्रतों को महाव्रतों में गिनाने का कारण यह है कि साधु अपनी झूठी प्रतिष्ठा के लिए झूठ न बोले तथा लिए गए व्रतों का गुप्तरूप से अतिक्रमण न करे । इसीलिए ग्रन्थ में साधु को निश्चयात्मक और उपयोगहीन वाणी बोलने तथा तृणादिसदृश तुच्छ वस्तु को भी बिना आज्ञा के ग्रहण करने का स्पष्ट निषेध किया गया है ।
इस तरह इन पांच नैतिक व्रतों के पालन करने से ही साधु का आचार पूर्ण हो जाता है परन्तु इन पाँचों व्रतों का अति सूक्ष्मरूप से पालन करने पर जीव किसी भी कार्य में प्रवृत्ति नहीं कर सकता है क्योंकि मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति होने पर सूक्ष्म हिंसा का होना स्वाभाविक ही है। अतः इस विषय में कुछ विशेष नियम बतलाए गए हैं जिनके अनुसार प्रवृति करने पर हिंसादि दोषों की सम्भावना नहीं रहती है। इन सभी नियमों के मूल में है - सावधानीपूर्वक ( प्रमादरहित ) सम्यक् प्रवृत्ति करना क्योंकि प्रमाद या असावधानीपूर्वक की गई निर्दोष भी प्रवृत्ति दोषजनक बतलाई गयी है । अतः ग्रन्थ में गौतम को लक्ष्य करके बारम्बार अप्रमत्त होने का उपदेश दिया गया है । अप्रमादपूर्वक प्रवृत्ति किस प्रकार संभव है इसी बात को समझाने के लिए समितियों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें बतलाया गया है कि साधु गमनागमन में, वचन बोलने में, भिक्षादि की प्राप्ति में, वस्तुओं के उठाने व रखने में तथा त्याज्य वस्तुओं के त्याग करने में किस प्रकार प्रवृत्ति करे जिससे कि हिंसादि दोषों का भागी न बने । जब प्रवृत्ति करने की आवश्यकता न हो तो उस समय मन, वचन एवं काय को गुप्त रखे, निरर्थक प्रवृत्ति न करे। मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति को गुप्त रखने के ही लिए तीन गुप्तियाँ बतलाई गई हैं । ये तीन गुप्तियाँ और पांच समितियाँ ही ग्रन्थ में 'प्रवचनमाता' शब्द से कही गई हैं । समस्त जैन ग्रन्थों का प्रवचन ( उपदेश ) कुछ में प्रवृत्ति और कुछ से निवृत्ति को बलानेवाला है । इस तरह समस्त जैन प्रवचन गुप्ति और समिति में समाविष्ट होने से इन्हें 'प्रवचनमाता' कहा जाता है। इसके अतिरिक्त गुप्ति और समिति में सावधान व्यक्ति ही जैन ग्रन्थों के प्रवचन को
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org