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३१६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन
४. जीवों की रक्षा के लिए-यदि भोजन ग्रहण करने से अहिंसा महाव्रत के पालन करने में बाधा आती है तो भोजन का त्याग कर . देना चाहिए। यह कथन विशेषकर वर्षाकाल की अपेक्षा से है क्योंकि वर्षाकाल में बहुत से क्षुद्र जीवों की उत्पत्ति हो जाती है और साधु के भिक्षार्थ जाते समय उनकी हिंसा हो जाती है।
५. तप करने के लिए-अनशन आदि तप करने के लिए भोजन का त्याग आवश्यक है। तप करना भी आवश्यक है क्योंकि ये... कर्मों की निर्जरा में प्रधान कारण हैं ।
६. समतापूर्वक जीवन का त्याग करने ( सल्लेखना ) के लिएमत्यु के सन्निकट आ जाने पर निर्ममत्व-अवस्था की प्राप्ति के लिए सब प्रकार के आहार का त्याग आवश्यक है। किस प्रकार का आहार ग्रहण करे ?
भोजन ग्रहण करने के प्रतिकूल कारणों के मौजूद न रहने पर और अनुकल कारणों के मौजूद रहने पर साधु को किस प्रकार का आहार ग्रहण करना चाहिए ? इस विषय में ग्रन्थ में निम्नोक्त संकेत मिलते हैं :
१. जो अनेक घरों से भिक्षा द्वारा माँगकर लाया गया हो-साध भिक्षा के द्वारा प्राप्त अन्न का ही सेवन करता है। वह भिक्षान्न केवल किसी एक घर से या अपने सम्बन्धीजनों के यहां से ही लाया हआ न हो अपितु अनिन्दित कूल वाले अज्ञात घरों से थोडा-थोडा माँगकर लाया हुआ होना चाहिए। परिस्थितिविशेष में वह आहार यज्ञ-मण्डप तथा छोटे कुल वाले ( प्रान्तकूल ) घरों से भी लाया जा सकता है । परन्तु किसी एक घर से पूरा आहार नहीं लाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर गृहस्थ को पुनः भोजन बनाना पड़ेगा जिससे साध के अहिंसावत में दोष होगा।। १. समुयाणं उद्दमेसिज्जा जहामुत्तमणि दियं । लाभालाभम्मि संतुटठे पिंडवावं चरे मुणी ।।
-उ० ३५१६. तथा देखिए--उ० १४.२६; १५.१ ; १७.१६ ; २५.२८. २. उ० १५.१३, २५.५.
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