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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ ३०४ (भाण्ड )आदि की प्रतिलेखना करे, फिर गुरु को नमस्कार करके पूछे कि 'हे भदन्त ! मैं स्वाध्याय करूं या वैयावृत्य ( सेवाशुश्रूषा )', फिर गुरु जिसकी आज्ञा देवें उसी का ग्लानिरहित होकर पालन करे।
दिन का द्वितीय प्रहर-इसमें साधु चित्त को एकाग्र करके ध्यान करे । इस ध्यान का वर्णन आगे तपश्चर्या में किया जाएगा।
दिन का तृतीय प्रहर-इसमें साधु भोजन-पान ( आहार ) की गवेषणार्थ गृहस्थों के घर जाए और गृहस्थ से प्राप्त आहार का उपभोग करे। भिक्षार्थ जाते समय अपने पात्रों की पुनः प्रतिलेखना कर लेना चाहिये तथा भिक्षा के लिये परमार्द्ध-योजनप्रमाण ( दो क्रोश-आधा योजन ) क्षेत्र तक ही जाना चाहिए।
दिन का चतुर्थ प्रहर-इस प्रहर में साधु पुनः स्वाध्याय करे । जब इस प्रहर का चतुर्थांश शेष रह जाए ( करीब ४५ मिनट ) तो गुरु की वन्दना करे, फिर शय्या एवं 'उच्चारभूमि' ( मल-मूत्रादि के त्यागने का स्थान) की प्रतिलेखना करके ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे हुए दिनसम्बन्धी अतिचारों ( दोषों) का चिन्तन करता हुआ गुरुवन्दना, कायोत्सर्ग, स्तुतिमङ्गल ( चतुर्विशतिस्तव ), प्रतिक्रमण आदि आवश्यकों को करे। गुरु-वन्दना प्रायः प्रत्येक आवश्यक-क्रिया के बाद करनी पड़ती है।
रात्रि का प्रथम प्रहर-इस प्रहर में साधु पुनः स्वाध्याय करे।
रात्रि का द्वितीय प्रहर-इसमें दिन के द्वितीय प्रहर की तरह ही ध्यान करे।
रात्रि का ततीय प्रहर-इसमें निद्रा का त्याग करे अर्थात इस प्रहर में निद्रा लेने के बाद प्रहर के अन्त में जाग जाए। यद्यपि ग्रन्थ में साक्षात् निद्रा लेने का कथन नहीं किया गया है परन्तु निद्रा का त्याग बिना निद्रा के सम्भव नहीं है। निद्रा के प्रमादरूप होने १. वेयावच्चे निउत्तेण कायव्वं अगिलायओ। सज्झाए वा निउत्तेण सव्वदुक्खवियोक्खणे ।।
-उ० २६. १०. तथा देखिए-उ० २६.८-६,१२,२१-२२.
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