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२६६ ] उत्तराव्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है और न करने से उन जीवों की हिंसा संभव है। अतः अहिंसाव्रत पालन करने वाले साधु को इन्हें करना आवश्यक है । जो साधु प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना को उचित रूप से नहीं करता हुआ अपने उपकरणों को जहाँ-तहाँ रख देता है तथा शय्या आदि पर धूलि-धूसरित पैर होने पर भी सो जाता है वह साधु सच्चा साधु नहीं है ।२ जो समय पर प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना करता है उसके ज्ञानावरणीयादि कर्म नष्ट हो जाते हैं।
प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना की विधि-साध को समय का अतिक्रमण किये बिना अपने सभी उपकरणों की प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना करनी चाहिए । प्रतिलेखना करते समय सर्वप्रथम मुखवस्त्रिका की, फिर रजोहरण ( गोच्छक ) की प्रतिलेखना करनी चाहिए । इसके बाद अंगुलियों से रजोहरण को ग्रहण करके वस्त्रों की प्रतिलेखना करनी चाहिए।वस्त्रों की प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को भूमि से ऊँचा रखते हुए दृढ़ता से स्थिर पकड़कर शीघ्रता न करते हुए सावधानीपूर्वक पहले वस्त्र का निरीक्षण करना चाहिए । इसके बाद यत्नपूर्वक वस्त्र को झटकारना चाहिए जिससे जीव-जन्तु निकल जाएँ। यदि न निकले तो यत्नपूर्वक हाथ में लेकर एकान्तस्थान में छोड़ देना चाहिए। इस क्रिया को करते समय शरीर एवं वस्त्र आदि को इधर-उधर नचाना नहीं चाहिए। वस्त्र कहीं से मुड़ा हुआ नहीं होना चाहिए। असावधानीपूर्वक जल्दी-जल्दी नहीं करना चाहिए । दीवाल आदि से संपर्क नहीं होना चाहिए। इसके अतिरिक्त जिस वस्त्र की प्रतिलेखना की १. पुढवी आउक्काए तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं ।
पडिलेहणा आउत्तो छण्हं संरक्खओ होइ ।
-उ० २६,३०-३१. २. देखिए -पृ० २५६, पा० टि० ४; उ० १७.१०,१४. ३. उ० २६.१५. ४. देखिए --पृ० २५८, पा० टि• ३.
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