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३०० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है । समितिवाले साधु का संसार-भ्रमण रुक जाता है और समिति से रहित साधु संसार में भटकता रहता है।' इस तरह गुप्ति और समितिरूप आठ प्रवचनमाताएँ महाव्रतों के रक्षण में तथा मुक्ति- . . मार्ग के प्राप्त कराने में प्रमुख हेतु हैं ।
जट-आवश्यक वैदिक संस्कृति में जिस प्रकार ब्राह्मण को प्रातःकाल एवं ... संध्याकाल में सन्ध्यावन्दना आदि नित्यकर्म करने पड़ते हैं उसी प्रकार जैन साधु को भी सामायिक आदि छः नित्यकर्म करने पड़ते हैं । अवश्य करणीय नित्यकर्म होने से इन्हें 'आवश्यक' कहा जाता है। इन छः आवश्यकों के नामादि इस प्रकार हैं ।
१. समताभाव रखना ( सामायिक ), २. चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति करना (चतुर्विशतिस्तव), ३. गुरु की वन्दना (वन्दन), ४. सदाचार में लगे हुए दोषों का प्रायश्चित्त करना (प्रतिक्रमण), ५. चित्त को एकाग्र करके शरीर से ममत्व हटाना (कायोत्सर्ग) और ६. आहार आदि का त्याग करना (प्रत्याख्यान)।
१. सामायिक आवश्यक-सम् +आय+इक = सामायिक अर्थात् रागद्वेष से रहित होकर समताभाव में स्थिर होना। इससे जीव सब प्रकार की पापात्मक प्रवृत्तियों (सावद्य-योग) से विरक्त हो १. आउत्तया जस्स न अत्यि कावि इरियाइ भासाइ तहेसणाए । आयाणनिक्खेवदुगंछणाए न वीरजायं अणुजाई मग्गं ।।
-उ० २०.४०. पाणे य नाइवाएज्जा से समीय त्ति वुच्चई ताई । तओ से पावयं कम्म निज्जाइ उदगं व थलाओ ।।
-उ० ८.६. तथा देखिए-उ० १२. १७; ३१.७; ३४.३१. २. अवश्यं कर्तव्यं आवश्यकं, श्रमणादिभिरवश्यं उभयकालं क्रियते ।
-~आवश्यक सूत्र, मलयगिरि-टीका, पृ० ८६, तथा देखिए----मूलाचार, अधिकार ७; श्रमणसूत्र, पृ० ८३-८५. ३. उ० २६.८-१३.
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