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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [ २८६ निश्चल होना) तप में सहायता मिलती है ।' मनोगुप्ति एवं वचनगुप्ति की तरह कायगुप्ति के सत्यादि के भेद से चार प्रकार नहीं गिनाए गए हैं। __इस तरह गुप्ति में न केवल अशुभ-प्रवृत्ति का निरोध बतलाया गया है अपितु यावन्मात्र प्रवृत्ति का निरोध बतलाया गया है। अतः पूर्वोल्लिखित गुप्ति के लक्षण में अव्याप्तिदोष (लक्षण का लक्ष्य के सभी अंशों में न पाया जाना) आता है। मालम पड़ता है कि व्यवहार की दृष्टि से प्रधानता अशुभार्थों के निरोध में ही होने से गुप्ति का लक्षण सिर्फ अशुभ-अर्थों में प्रवृत्त मन, वचन और काय के व्यापार का निरोध बतलाया गया है। यदि यावन्मात्र शुभाशुभ प्रवृत्ति का निरोध कर दिया जाएगा तो किसी भी क्रिया में प्रवत्ति न होने से सदाचाररूप महाव्रतों का पालन करना संभव न हो सकेगा। इसके अतिरिक्त श्वासादि क्रिया का भी निरोध कर देने पर जीवनधारण करना भी संभव न हो सकेगा । अतः गुप्ति का कार्य प्रवृत्ति-निरोधरूप होने पर भी प्रधानरूप से अशुभ प्रवृत्ति को रोकना है। यदि शुभकार्यों में प्रवृत्ति की आवश्यकता पड़े तो आगे कही जानेवाली 'समिति' का आश्रय लेना चाहिए। इसीलिए नेमिचन्द्राचार्य अपनी वत्ति में लिखते हैं कि जो समिति और गुप्ति का भेदपूर्वक कथन किया गया है वह समितियों के केवल प्रवृत्तिरूप (प्रविचार) होने एवं गप्तियों के प्रवृत्ति एवं निवृत्ति उभयरूप होने से कथञ्चित् भेद बतलाने के लिए किया गया है। ये गुप्तियाँ और समितियाँ सब चारित्ररूप हैं और वह चारित्र ज्ञान और दर्शन के होने पर ही होनेवाला (अविनाभावी) है। इस तरह नेमिचन्द्राचार्य के अनुसार गुप्तियाँ न केवल अशुभ-अर्थों से निवृत्तिरूप हैं अपितु शुभ-अर्थों में प्रवृत्तिरूप भी हैं । २ गुप्ति शब्द रक्षार्थक ‘गुप्' धातु (गुपुरक्षणे) १. उ० २६.५८. २. 'गुत्ति' त्ति गुप्तयो निवर्त्तनेऽप्युक्ताः, 'असुभत्थेसु' त्ति 'अशु
भार्थेभ्यः' अशोभनमनोयोगादिभ्यः 'सव्वसो' त्ति सर्वेभ्यः, अपि शब्दात् चरणप्रवर्त्तनेऽपीति सूत्रार्थः ।
-उ० ने० वृ०, पृ० ३०४. तथा देखिए- पृ० २८६, पा० टि० १.
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