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२८२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन नहीं है क्योंकि सांसारिक विषयों के प्रति मोह होने पर ही उनकी प्राप्ति के लिये जीवों की हिंसादि क्रियाओं में प्रवत्ति देखी जाती है। इसीलिये पाँच महाव्रतों में सबसे पहले अहिंसा को और अन्त में अपरिग्रह को गिनाया गया है। मलतः ये दो ही महाव्रत हैं जो एक-दूसरे के पूरक हैं। इन्हीं का विस्तार करके भगवान पार्श्वनाथ ने चार महाव्रतों के रूप में और भगवान महावीर ने पाँच महाव्रतों के रूप में उपदेश दिया। केशि-गौतम संवाद में ब्रह्मचर्य महावत को पृथक मानने के लिए जो तर्क दिया गया है यह तर्क अन्य व्रतों के लिए भी लागू होता है क्योंकि जो पूर्ण अहिंसक और अपरिग्रही होगा वह झूठ, चोरी, मैथुनसेवन आदि अनैतिक आचरणों में कभी भी प्रवृत्त नहीं होगा। यदि पूर्ण अहिंसक और अपरिग्रही होकर भी वह झठ, चोरी आदि में प्रवृत्ति करता है तो वह वास्तव में पूर्ण अहिंसक व अपरिग्र ही नहीं है। अहिंसा और अपरिग्रह इन दो व्रतों का सम्यक्रूप से पूर्णतः पालन करने के लिए सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य इन तीन व्रतों का भी पालन करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त न केवल इन पाँच व्रतों का ही पालन करना आवश्यक है अपितु ऐसे अन्य कई नैतिक व्रतों का भी पालन करना आवश्यक है। अतः ग्रन्थ में वीतरागी साधु को हजारों गुणों को धारण करनेवाला कहा गया है।' ग्रन्थ के इकतीसवें अध्ययन में साध के जो १० धर्म और २७ गुण बतालाए गए हैं वे सब इन पाँच महाव्रतों के विस्ताररूप ही हैं । २ १. गुणाणं तु सहस्साई धारेयवाई भिक्खुणा ।
-उ० १६.२५, २. साधु के दस धर्म और सत्ताईस गुण टीका-ग्रन्थों के अनुसार निम्नोक्त
क. साध के दस धर्म-१. क्षमा, २. मृदुता, ३. ऋजुता (सरलता),
४. मुक्ति (लोभ न करना), ५. तप, ६. संयम, ७. सत्य, ८. शौच
( पवित्रता ), ६. अकिञ्चन ( अपरिग्रह ) और १० ब्रह्मचर्य । ख. साध के सत्ताईस गुण-१-५. पांच महाव्रत, ६. रात्रिभोजनत्याग,
७-११. पञ्चेन्द्रियनिग्रह, १२. भाव सत्य, १३. करण सत्य, १४. क्षमा,
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