________________
प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[ १६६ परिणामों से युक्त न रहेगा तो विषयों से विरक्ति और संवेगादिभाव कैसे हो सकते हैं ? इस तरह सम्यग्दर्शन प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन पांच गुणों से युक्त होता है। जब तक पांचों गुणों की प्राप्ति नहीं होगी तब तक जीवादि तथ्यों में श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती है। अतः सम्यग्दर्शन का लक्षण आस्तिक्य गुण-विशेष को लेकर तथ्यों में श्रद्धा किया गया है। आगे चलकर जैनदर्शन में यही श्रद्धापरक सम्यग्दर्शन का लक्षण व्यावहारिक-सम्यग्दर्शन कहलाने लगा तथा स्व और पर ( चेतन और अचेतन ) का भेदज्ञान निश्चय-सम्यग्दर्शन ( परमार्थ-सम्यग्दर्शन )। इस तरह अपेक्षा-भेद से सम्यग्दर्शन के लक्षण में भेद होने पर भी ग्रन्थ में स्वीकृत लक्षण में कोई बाधा नहीं पड़ती है क्योंकि अचेतन से चेतन का पृथक प्रतीतिरूप स्व-परभेदज्ञान सम्यग्दर्शन के आस्तिक्यगुण का ही रूप-विशेष है तथा स्व-परभेदज्ञान हुए बिना तथ्यों में श्रद्धा नहीं हो सकती है। जीवादि तथ्यों में श्रद्धा होने पर स्व-परभेदज्ञान स्वतः हो जाता है। अतः जोवादि तथ्यों में श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है तथा इनमें श्रद्धा न होना मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन है। इस तरह यदि हम दूसरे शब्दों में सम्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाना चाहें तो कह सकते हैं कि धर्म की ओर प्रवृत्त होना, सत्य का बोध होना, विषयों से विरक्ति होना, शरीर से पृथक् जीव (चेतन) के अस्तित्व का बोध होना आदि सब सम्यग्दर्शन है। इसीलिए ग्रन्थ में संवेगादि की प्राप्ति को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के अर्थ में प्रयोग किया गया है। सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग :
सम्यग्दर्शन निम्नोक्त आठ विशेष बातोंपर निर्भर करता है जो सम्यग्दर्शन के आठ अङ्ग कहलाते हैं । उन आठ अङ्गों के नाम ये हैं : २ १. छहढाला ३.१-३. २. निस्संकिय-निक्कंखिय-निव्वितिगिच्छा अमूढदिठी य । उववूह-थिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ ॥
-उ० २८.३१. विशेष के लिए देखिए-पुरुषार्थसिद्ध युपाय, श्लोक २३-३०; समीचीन धर्मशास्त्र, श्लोक ११-१८,२१.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org