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प्रकरण ३: रत्नत्रय
[ २२७ गुरु के गुणों आदि का पता चलता है। इस प्रकार के गुरु को यदि विनीत या अविनीत शिष्य मिलता है तो उसे क्या करना चाहिए ? इस विषय में ग्रन्थ में गुरु के निम्नोक्त कर्त्तव्य बतलाए गए हैं :
१. विनीत शिष्य पाकर गुरु को चाहिए कि वह स्पष्ट और सरल शब्दों में अपनी कमजोरी को छिपाए बिना शिष्य को सही. सही ज्ञान करा देवे ।। ____२. सारगर्भित प्रश्नों का ही उत्तर देवे । असम्बद्ध, असार-गर्भित
और निश्चयात्मक वाणी न बोले। - ३. निपुण एवं विनीत शिष्य की ही अभिलाषा करे। यदि ऐसा योग्य शिष्य न मिले तो व्यर्थ का शिष्य परिवार न बढ़ाकर एकाकी विचरण करे।
४. गरु का उपदेश पापनाशक, कल्याणकारक, शांति और आत्मशूद्धि करनेवाला होता है। अत: उपदेश देते समय शिष्य को पुत्र-तुल्य मानकर उसके लाभ को दृष्टि में रखे । १. एवं विणयजुत्तस्स सुत्तं अत्थं च तदुभयं । पुच्छमाणस्स सीसस्स वागरिज्ज जहासुयं ॥
-उ० १.२३. २. मुसं परिहरे भिक्खू न य ओहारिणीं वए । भासादोसं परिहरे मायं च वज्जए सया । न लवेज्ज पुट्ठो सावज्ज न निरठें न मम्मयं । अप्पणट्ठा परदा वा उभयस्सन्तरेण वा ॥
-उ० १.२४-२५. तथा देखिए-उ० अध्ययन ६,१२,२३,२५ आदि । ३.. न वा लभेज्जा निउणं सहायं गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एगो वि पावाई विवज्जयंतो विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो ॥
-उ० ३२.५. तथा देखिए-उ० २७.१४-१७. ४, जं मे बुद्धाणुसासन्ति सीएण फरुसेण वा। मम लाभो ति पेहाए पयओ तं पडिस्सुणे ।।
-उ० १.२७. तथा देखिए-पृ. २२३, पा० टि० १.
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