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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[ २३१ ग्रहण किया जाता है तो उनका विशेष सावधानीपूर्वक पालन करना पड़ता है। इसमें साधक पहले ग्रहण किए गए व्रतों का छेदन करके पुनः उपस्थापना करता है। अतः इसे छेदोपस्थापनाचारित्र कहते हैं । यह सदाचार की दूसरी अवस्था है ।
३. परिहारविशुद्धिचारित्र-एक विशिष्ट प्रकार के तपश्चरण' द्वारा आत्मा की विशेष शुद्धि करने को परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। चारित्र के तपप्रधान होने के कारण ही इस परिहारविशुद्धि चारित्र को स्वीकार किया गया है। यह चारित्र की तृतीय अवस्था है।
४ सूक्ष्मसम्परायचारित्र-यह चारित्र की चौथी अवस्था है। इस अवस्था तक पहुँचने पर साधक को सांसारिक विषयों के प्रति बहत ही स्वल्प राग-बुद्धि रह जाती है और सभी कषाय शान्त हो जाते हैं। सूक्ष्म-सम्पराय का अर्थ है-स्वल्पेच्छा की धारा बहती रहना। अर्थात् इस अवस्था में स्वल्प राग की धारा मौजूद रहने से कर्मों का थोड़ा-थोड़ा आना बना रहता है।
५ यथाख्यातचारित्र-यह चारित्र की अन्तिम अवस्था है। जब स्वल्पराग का भी अभाव हो जाता है तब इस प्रकार के चारित्र की प्राप्ति होती है। यहाँ राग के अभाव से तात्पर्य सर्वथा उसके क्षय से नहीं है अपितु उसकी उपशान्त अवस्था भी अभिप्रेत है। इसीलिए इस चारित्र का धारी सर्वज्ञ ( जिन ) की .. १. तप की विधि - जब कोई नौ साधु किसी एक तप को १८ मास तक
मिलकर करते हैं तो उनमें से कोई चार साधु ६ मास तक तप करते हैं, अन्य चार उनकी सेवा करते हैं तथा अवशिष्ट एक साधु निरीक्षक (वामनाचार्य) होता है। छः मास के बाद सेवा करनेवाले चारों साधु तप करते हैं और तप करनेवाले चारों साधू उनकी सेवा करते हैं। इस तरह पुनः छः मास बीत जाने पर वामनाचार्य छः मास तक तप करता हैं तथा अन्य आठ साधुओं में से कोई एक वामनाचार्य बन जाता है और शेष सभी उसकी सेवा करते हैं। इस तरह यह १८ मास के तप की एक विधि है।
देखिए-उ० आ० टी०, पृ० १२४२.
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