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२४० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन प्रकार किसी कार्य की सफलता के लिए इच्छा, ज्ञान और प्रयत्न इन तीन बातों का संयोग आवश्यक होता है उसी प्रकार संसार के दु:खों से निवृत्ति पाने के लिए भी विश्वास, ज्ञान और सदाचार के संयोग की आवश्यकता है। इसे ही ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के नाम से कहा गया है। यहाँ इतना विशेष है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों गीता के भक्तियोग, ज्ञानयोग
और कर्मयोग की तरह पृथक-पृथक मुक्ति के तीन मार्ग नहीं हैं अपितु तीनों मिलकर एक ही मार्ग का निर्माण करते हैं। इन तीनों का सम्मिलित नाम 'रत्नत्रय' है । ग्रन्थ में यद्यपि कहीं-कहीं ज्ञान के पूर्व चारित्र का तथा दर्शन के पूर्व ज्ञान व चारित्र का भी प्रयोग मिलता है परन्तु इनकी उत्पत्ति क्रमशः होती है। यह अवश्य है कि विश्वास में ज्ञान व चारित्र से, ज्ञान में विश्वास व चारित्र से तथा चारित्र में ज्ञान व विश्वास से दृढता आती है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में कहीं दर्शन के एक अंग से, कहीं ज्ञान के एक अंग से और कहीं चारित्र के एक अंग से मुक्ति का प्रतिपादन किया गया है परन्तु ऐसा सिर्फ उस अंग-विशेष का महत्त्व प्रकट करने के लिए ही किया गया है।
ज्ञान की पूर्णता हो जाने पर भी जीव की संसार में कुछ समय के लिए स्थिति स्वीकार करने के कारण एवं फैले हुए दुराचार को रोकने के लिए चारित्र को सर्वोपरि स्थान दिया गया है, अन्यथा जब संसार का मूलकारण अज्ञान है तो सच्चा-ज्ञान ही मुक्ति का प्रधान कारण हो सकता है। यह अवश्य है कि विश्वास एवं चारित्र से उसमें दढ़ता आती है परन्तु जब किसी को सम्यक व पूर्णज्ञान हो जाएगा तो वह दुराचार में क्यों प्रवृत्त होगा ? दुराचार में प्रवृत्ति तभी तक संभव है जब-तक सच्चा-ज्ञान न हो। यदि सच्चा-ज्ञान होने पर भी कोई दुराचार में प्रवृत्त होता है तो वह वास्तव में सच्चा-ज्ञानी नहीं है । इसीलिए ज्ञान की पूर्णता हो जाने पर केवलज्ञानी को 'जीवन्मुक्त' माना गया है तथा वह शेष कर्मों को शीघ्र नष्ट करके नियम से पूर्ण-मुक्त हो जाता है । अत: ज्ञान हो जाने के बाद भी जीव की स्थिति कुछ काल तक रहने के कारण चारित्र को बाद में गिनाया गया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि ज्ञान मात्र से मुक्ति मिलती
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