________________
. २५० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन में शरीर के शिथिल हो जाने पर धर्म का पालन कर सकना और भी अधिक कठिन है, जबकि युवावस्था में शक्य है। युवावस्था से ही यदि धर्म के पालन करने का प्रयत्न किया जाए तो वृद्धावस्था में भी उसके धारण करने की सामर्थ्य बनी रहती है। अतः ग्रन्थ में कहा है कि कल की प्रतीक्षा वही व्यक्ति करे जिसकी मृत्यु से मित्रता है या जो मृत्यु से बच सकता है।' दीक्षार्थ माता-पिता की अनुमति :
दीक्षा लेने के पूर्व माता-पिता व सम्बन्धीजनों से अनुमति लेना चाहिए। यदि वह घर का ज्येष्ठ व्यक्ति हो तो पुत्रादि को सम्पत्ति वगैरह सौंपकर दीक्षा ले लेना चाहिए। यदि माता-पिता पूत्र को दीक्षा के लिए अनुमति न देकर भोगों के प्रति प्रलोभित करें तो दीक्षा लेनेवाले का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है कि वह माता-पिता को समझाने का प्रयत्न करे। पश्चात् आत्म-कल्याणार्थ दीक्षा ले लेवे । अरिष्टनेमी और राजीमती ने दीक्षा के पूर्व माता-पिता से अनुमति ली थी या नहीं इसका यद्यपि ग्रन्थ में उल्लेख नहीं है परन्तु दीक्षा ले लेने पर वासूदेव आदि उनके कूटम्बीजन उन्हें अभिलषित मनोरथप्राप्ति का आशीर्वाद अवश्य देते हैं। इससे उनकी अनुमति की पुष्टि हो जाती है। दीक्षा के पूर्व माता-पिता से आज्ञा लेना उनके प्रति विनय एवं कर्त्तव्यपरायणता का सूचक है । परिवार एवं सांसारिक विषय-भोगों का त्याग :
माता-पिता की आज्ञा लेने के बाद साधक को माता-पिता, भाई, पत्नी, पुत्र आदि सभी कूटम्बीजनों तथा संसार के सभी १. जस्सत्थि मच्चु णा सक्खं जस्स वऽत्थि पलायगं । जो जाणे न मरिस्सामि सो हु कंखे सुए सिया ।
-उ० १४.२७. २. उ० १४.६-७; १६.१०-११, २४, ८६, ८७; २०.१०, ३४. ३. पुत्तं ठवेत्तु रज्जे अभिणिक्खमई नमी राया।
-उ०६.२. ४. उ० अध्ययन १४, १६. ५. उ० २२.२५-२६, ३१.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org