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प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार
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२. रजोहरण (गोच्छक) - जीवों की रक्षा करने तथा धूलि आदि साफ करने की मार्जनीविशेष | यह भी साधु के पास हमेशा रहती है क्योंकि प्रत्येक कायिक-क्रिया के प्रारम्भ में इसकी आवश्यकता पड़ती है । दिगम्बर - परम्परा के साधुओं का भी यह आवश्यक उपकरण है |
३. पात्र ( भाण्डक ) - लकड़ी, तू बी या मिट्टी आदि के बर्तन | इनका उपयोग आहार, जल आदि के लाने एवं रखने में होता है । आचाराङ्गसूत्र में आवश्यकतानुसार दो-चार पात्र रखने का उल्लेख मिलता है । " यह भी एक आवश्यक उपकरण है । दिगम्बरपरम्परा के साधु सिर्फ एक पात्र रखते हैं जिसे 'कमण्डलु' कहते हैं ।
४. वस्त्र - पहिनने के कपड़े । ये वस्त्र साधारणकोटि के होते थे जिससे उनके प्रति ममत्व नहीं होता था । यद्यपि महावीर ने अचेल धर्म (नग्न रहने) का उपदेश दिया था परन्तु हरिकेशिबल को ‘अवमचेलए’ ( साधारणकोटि के वस्त्रवाला ) कहा है । इसके अतिरिक्त वस्त्रों को प्रतिदिन खोलकर उन्हें ठीक से देखने एवं
जोहरण से उनका प्रमार्जन ( सफाई ) करने का विधान किया गया है । इससे स्पष्ट है कि साधु को वस्त्र रखने की छूट अवश्य थी परन्तु उनकी सीमा निश्चित थी ।
५. पादकम्बल - इसका ग्रन्थ में दो जगह उल्लेख मिलता है । आत्मारामजी ने दोनों स्थानों पर भिन्न-भिन्न दो अर्थ किए
१. आचाराङ्गसूत्र २.१.६.
२. ओमचेलए पंसुपिसायभूए संकरसं परिहरिय कण्ठे ।
३. देखिए - पृ० २५८, पा० टि० ३.
४. संथारं फलगं पीढं निसिज्जं पायकंबलं ।
अपमज्जियमारुहई पावसमणि त्ति वुच्चई ||
पडिले पत्ते अवउज्झइ पायकंबलं । पडिलेहाअणा उत्ते पावसमणि त्ति वच्चई ||
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- उ० १२.६.
—-उ० १७.७.
-उ० १७.६.
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