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२३६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन करना पड़ता है। इसीलिए अन्य आश्रमों की अपेक्षा गृहस्थाश्रम को अत्यन्त कठिन कहा गया है। गहस्थ माता-पितादि परिवार के साथ अपने गृह में निवास करता है, साधुओं की भोजन-पान आदि से सेवा करता है और स्थूलरूप से अहिंसादि धार्मिक नियमों का पालन करता है। अतः उसे ग्रन्थ में गृहस्थ, सागार, उपासक, श्रावक, असंयत आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है।' गहस्थ की जिन ग्यारह प्रतिमाओं का ग्रन्थ में उल्लेख किया गया है उनमें गृहस्थ के आचार-सम्बन्धी उपवास, दया, दान आदि सभी व्रत आ जाते हैं। टीका-ग्रन्थों तथा गृहस्थाचार के प्रतिपादक ग्रन्थों को देखने से पता चलता है कि गृहस्थ इन ग्यारह प्रतिमाओं (नियमों) का क्रमशः धारण करता हुआ आगे की ओर बढ़ता है। आगे-आगे की प्रतिमा को धारण करने वाला गृहस्थ पीछे की प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करता हुआ साध्वाचार की ओर बढ़ने का निरन्तर प्रयत्न करता रहता है। दिगम्बर-परम्परा में भी इसी प्रकार की गृहस्थ की ११ १. देखिए-पृ०२३५, पा० टि० २-३; उ० २१. १-२, ५; २६. ४५. २. गृहस्थ की ग्यारह प्रतिमाएं ये हैं : १. दर्शन-जिनोपदिष्ट तत्त्वों में
विश्वास, २. व्रत-अहिंसा आदि बारह व्रतों के पालन करने में यत्नवान् होना । वे अहिंसादि बारह व्रत इस प्रकार हैं : स्थूलरूप से अहिंसा का पालन करना, सत्यबोलना, चोरी न करना, परस्त्रीसेवन न करना, धनादि का अधिक संग्रह न करना, चारों दिशाओं में गमनागमनसम्बन्धी सीमा निर्धारित करना, भोग्य और उपभोग्य वस्तुओं के सेवन की मर्यादा करना, सर्वदा अनुपयोगी वस्तुओं और क्रियाओं का त्याग करना, प्रातः-सायं तथा मध्याह्न में आत्मगुणों का चिन्तन करते हुए समताभाव में स्थिर होना (सामायिक), देश व नगर में परिभ्रमण की सीमा को नियत करना, मास में दो बार या कम से कम एक बार उपवास करना (प्रोषध), और आगन्तुक दीन-दुःखी व साधु आदि की अपनी शक्त्यनुसार दानादि ) सेवा करना। इनमें से प्रथम पांच व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं क्योंकि इनमें अहिंसादि पाँच महाव्रतों का स्थूल रूप से पालन किया जाता है । आत्मविकास के लिए मूलभूत व गुणरूप होने के कारण श्वेताम्बर-परम्परा में इन्हें 'मूलगुण' कहते हैं । इनके अति
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