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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
एवं कुटुम्ब से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रहता है। गृहस्थ का भी उद्देश्य इसी अवस्था ( साध्वाचार) की ओर बढ़ना है परन्तु गृहस्थ पर गृहस्थी का भार होने के कारण वह उस अवस्था तक पहुँचने में असमर्थ होता हुआ अहिंसादि व्रतों का स्थूलरूप से पालन करता है ।
गृहस्थाचार - गृहस्थ-धर्म का उपदेश उन्हें ही दिया गया है जो साध्वाचार का पालन करने में असमर्थ हैं । अतः चित्त का जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से कहता है - 'हे राजन् ! यदि तुम भोगों को त्यागने (सर्वविरतिरूप साधु-धर्म स्वीकार करने) में असमर्थ हो तो गृहस्थोचित आर्य-कर्म (सदाचार करो तथा धर्म में स्थित होकर सम्पूर्ण प्रजा पर अनुकम्पा करने वाले बनो ।" यहाँ पर गृहस्थ का आचार 'आर्य-कर्म' तथा 'दया' बतलाया गया है । इसके अतिरिक्त ग्रन्थ में गृहस्थ के ११ नियमों (प्रतिमाएँ ) तथा माह में कम से कम एक बार उपवास ( प्रोषध) करते हुए सम्यक्त्व का पालन करने का उल्लेख मिलता है । २ नमि प्रव्रज्या नामक अध्ययन में इन्द्र गृहस्थधर्म में स्थित व्यक्ति को 'घोराश्रमी' कहता है ? क्योंकि गृहस्थ के ऊपर अन्य सभी आश्रमवासियों का तथा कुटुम्ब आदि का भार रहता है और उसे उन सब का पालन-पोषण
१. जइ तं सि भोगे चइउं असत्तो अज्जाई कम्माई करेहि रायं । धम्मेठि सव्वपाणुकंपी तो होहिसि देवो इओ विउव्वी ॥
- उ० १३.३२. तथा देखिए - उ० १४.२६-२७; २२.३८; उपासकदशाङ्ग १.१२; र्मामृत २.१.
२. अगार सामाइयंगाई सड्ढी काएण फासए । पोसहं दुहओ पक्खं एगरायं न हवाए ॥
- उ० ५.२३. उवास गाणं पडिमासु ...." से न अच्छइ मंडले | - उ० ३१. ११.
३. घोरासमं चइत्ताणं अन्नं पत्थेसि आसमं । इव पोसहरओ भवाहि मणुयाहिवा ||
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- उ० ६. ४२.
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