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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
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धीरे चारित्र का विकास करते हुए नीचे से ऊपर की ओर मुक्ति के लिए बढ़ता है।' १. जीवों के आध्यात्मिक विकासक्रम की १४ अवस्थाएँ (गुणस्थान-जीव
स्थान) ये हैं : १. मिथ्यादृष्टि-संसारासक्त होकर अधार्मिक-जीवन यापन करनेवाला, २. सासादन-धार्मिक-जीवन से अधामिक-जीवन की ओर पतन करने वाला अर्थात् जो अभी मिथ्यादृष्टि तो नहीं है परन्तु मिथ्यादृष्टि होने वाला है, ३. सम्यक्त्वमिथ्यादृष्टि (मिश्र)कुछ धार्मिक और कुछ अधार्मिक-जीवन यापन करने वाला, ४. अविरतसम्यग्दृष्टि-सामान्य गृहस्थ का जीवन जो अभी संसार के विषयों से विरक्त नहीं है, ५. विरताविरत (देशविरत)सांसारिक विषयों से अंशतः विरत और अंशतः अविरत गहस्थ, ६. प्रमत्तसंयत-नवदीक्षित साधु जो संसार के विषयों से सर्वविरत तो है परन्तु कभी-कभी प्रमाद करता रहता है, ७. अप्रमत्तसंयतप्रमादरहित होकर सदाचार का पालन करने वाला।
इसके बाद आगे बढ़ने की दो श्रेणियां हैं: क. उपशमश्रेणी (जिसमें मोहनीय कर्म भस्माच्छन्न अग्नि की तरह दवा पड़ा रहता है और बाद में समय आने पर उदय में आता है जिससे उस जीव का नीचे की ओर पतन होता है) और ख. क्षपकश्रेणी (जिसमें सदा के लिए कर्मों को नष्ट कर दिया जाता है और जीव आगे की ओर ही बढ़ता जाता है)। उपशमश्रेणी आठ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक ही है तथा क्षयरुश्रेगी अन्त तक है। इनके नामों में कोई भेद नहीं है, सिर्फ मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय की अपेक्षा से ही भेद है । क्षप कश्रेणी वाला दसवें गुणस्थान के बाद सीधे बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। 5. निवृतिवार (अपूर्वकरण)-स्यूल कषायों के उपशम या क्षय से प्राप्त जीव की स्थिति । इस अवस्था की प्राप्ति पहले कभी न होने के कारण इसे 'अपूर्वकरण' भी कहते हैं । ९. अनिवृत्तिबादर (अनिवृत्तिकरण )-अप्रत्याख्यानावरणी (स्थूल की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म) कषायों एवं नोकषायों के उपशम या विनाश से प्राप्त जीव की स्थिति, १०. सूक्ष्मसम्पराय-जिसके अत्यन्त सूक्ष्म कषाय मात्र रह गया है ऐसे जीव की स्थिति, ११. उपशान्त-मोह
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