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उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन ५. ऐसे शिष्य को उपदेश न देवे जो उस उपदेश का पालन न करे अपितु विनीत शिष्य को ही उपदेश देवे। जैसे चित्त का जीव संभत के जीव ब्रह्मदल चक्रवर्ती को उपदेश देकर सोचता है कि मैंने इसे व्यर्थ उपदेश दिया क्योंकि इस पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।' ___ इस तरह ग्रन्थ में शास्त्रज्ञान की प्राप्ति के लिए शिष्य के जिन गुणों का उल्लेख किया गया है उन सबका अन्तर्भाव विनम्रता, जितेन्द्रियता एवं ज्ञानप्राप्ति के लिए उत्कट-प्रयत्नशीलता इन तीन गुणों में किया जा सकता है। इन तीन गुणों में से विनय गुण शिष्य के लिए सर्वाधिक आवश्यक है क्योंकि विनम्रता ज्ञानप्राप्ति के लिए आधार-स्तम्भ है। किञ्च, अविनीत को ज्ञानी होने पर भी 'अपण्डित' कहा गया है तथा विनीत को 'पण्डित'। ग्रन्थ में विनीत शिष्य के जिन गुणों का उल्लेख किया गया है वे सब गुरु के पूर्ण अनुशासन में रहने, गुरु की सम्मानादि से सेवा करने, हित-मित-प्रिय बोलने तथा संकेतमात्र से तदनुकल आचरण करने रूप हैं। इन गुणों से रहित जो स्वच्छन्द विचरण करनेवाले उद्दण्ड छात्र हैं वे सब अविनीत हैं और ज्ञानप्राप्ति के सर्वथा अयोग्य हैं। इसके अतिरिक्त विनीत विद्यार्थी को ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी विनय को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि विनय ही सब प्रकार की सफलता का मूलाधार है । ग्रन्थ का प्रारम्भ भी विनय अध्ययन से किया गया है। इसके अतिरिक्त विनय और गुरुसेवा को पृथक-पृथक् तप के रूप में भी स्वीकार किया गया है जिसका आगे विचार किया जाएगा। इस तरह के विनीत व योग्य शिष्य को पाकर गुरु का भी कर्त्तव्य हो जाता है कि वह उसके साथ पुत्रवत् व्यवहार करे तथा अपना समस्त ज्ञान उसे दे देवे । ज्ञान का महत्त्व प्रकट करने के लिए ही ग्रन्थ में गुरु की महत्ता पर बहुत जोर दिया गया है।
सम्प्रचारित्र (सदाचार) आचार व्यक्ति का वह मूल्य है जिसके द्वारा वह महान् से महान और निम्न से भी निम्न बन सकता है। सदाचार व्यक्ति १. मोहं कओ एत्तिउ विपलावो गच्छामि रायं आमंतिओ सि ।
-उ० १३.३३.
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