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२०४ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन श्रद्धा दृढ़ नहीं होती है। धीरे-धीरे उन क्रियाओं को करते रहने पर एक दिन उसे दृढ़-श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है। अतः धार्मिक-क्रियाएँ करते रहने से इसकी उत्पत्ति होने के कारण इसे क्रियारुचि कहा गया है। ____६. संक्षेपरुचि-नाना प्रकार के मतवादों में न पड़कर जैनप्रवचन में श्रद्धा करना संक्षेपरुचि है।' बीजरुचि में संक्षेप से विस्तार की ओर प्रवृत्ति होती है और संक्षेपरुचि में विस्तार नहीं होता है क्योंकि संक्षेपरु चिवाला न तो नाना प्रकार के मतवादों में पड़ता है और न जिन-प्रवचन में पाण्डित्य ही प्राप्त करता है जबकि बीजरुचिवाला शीघ्र ही पाण्डित्य को प्राप्त कर लेता है। यही दोनों में अन्तर है।
१०. धर्मरुचि-जिन-प्रणीत धर्म में श्रद्धा करना धर्मरुचि है। इसकी उत्पत्ति धार्मिक विश्वास से होती है ।२ क्रियारुचि में धार्मिक क्रियाओं की प्रधानता है और धर्मरुचि में धार्मिक भावना की प्रधानता है । यही दोनों में भेद है।
उपर्युक्त १० प्रकार के सम्यक्त्व के भेदों को देखने से ज्ञात होता है कि ये सभी भेद उत्पत्ति की निमित्तकारणता को लेकर किए गये हैं। इनके साथ जो 'रुचि' शब्द जोड़ा गया है वह श्रद्धापरक है क्योंकि सम्यग्दर्शन के जो ये १० भेद किए गए हैं वे यह बतलाते हैं कि निसर्गादि की विशेषता को लिए हए जीवादि तथ्यों में रुचिरूप सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है।
स्थानाङ्ग और प्रज्ञापना इन दो सूत्र-ग्रन्थों में भी सम्यग्दर्शन के इन १० भेदों का इसी प्रकार से उल्लेख मिलता है। परन्तु
१. अणभिग्गहियकुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ नायव्यो। अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु ।।
-उ० २८.२६. २. जो अस्थिकायधम्म सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च । सहइ जिणाभिहियं सो धम्मरुइ ति नायव्वो ॥
-उ० २८.२७. ३. देखिए-पृ० २० १, पा० टि० २.
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