________________
प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[ २०३
के सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिए अंग और अंगबाह्य आगम ग्रन्थों के अध्ययन की आवश्यकता नहीं पड़ती है अपितु जल में डाली गई बीजरूप तेल की एक बूंद की तरह थोड़े से ही पदार्थ - ज्ञान से यह उत्पन्न होकर सर्वत्र फैल जाता है ।
६. अभिगमरुचि - अंग और अंगबाह्य सूत्र-ग्रन्थों के अर्थज्ञान से उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दर्शन ।' सूत्ररुचि सम्यग्दर्शन में अर्थ - ज्ञान अपेक्षित नहीं है जबकि अभिगमरुचि में सूत्र - ग्रन्थों का अर्थज्ञान भी अपेक्षित है । यही इन दोनों में भेद है ।
७. विस्ताररुचि - ज्ञान के सभी स्रोतों के द्वारा जीवादि द्रव्यों के समझने पर उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दर्शन | 3 इस तरह यह विस्तार के साथ जीवादि द्रव्यों के समझने के बाद उत्पन्न होता है । अत: अभिगमरुचि की अपेक्षा यह अधिक विलम्ब से होता है । यहीं इन दोनों में भेद है ।
८. क्रियारुचि - रत्नत्रयसम्बन्धी धार्मिक क्रियाओं को करते रहने से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसे 'क्रियारुचि' कहते हैं । कभी-कभी ऐसा होता है कि व्यक्ति परम्परावश या किसी अन्य निमित्तवश धार्मिक क्रियाओं को करता रहता है परन्तु उसकी
१. सो होइ अभिगमरुई सुयनाणं जेण अत्थओ दिट्ठ । एक्कारस अंगाई पइण्णगं दिठिवाओ य ।।
- उ० २८.२३.
२. ज्ञान के मुख्य दो स्रोत हैं- प्रमाण और नय । वस्तु के सकलदेश को विषय करने वाला 'प्रमाण' तथा एकदेश को विषय करने वाला 'नय' कहलाता है ।
देखिए - त० सू० १.६.
३. दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा । सव्वाहि नयविहीहि वित्थाररुइ त्ति नायव्वो ।
- उ० २८.२४.
४. दंसणनाणचरिते तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु । ataforभाव सो खलु किरियारुई नाम ||
- उ० २८.२५.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org