________________
प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[ २१६ करना, ८. असम्बद्ध व अधिक बोलना, ६. द्रोह करना, १०. अभिमान करना, ११. लोभ करना, १२. इन्द्रियों को अनुशासन में न रखकर स्वच्छन्द आचरण करना, १३. सहपाठियों के साथ सहयोग न करना, १४. दूसरों का अप्रिय करना ।
इसी तरह अविनीत के और भी अनेक दुर्गुण हो सकते हैं । ग्रन्थ में अविनीत शिष्यों के इसी प्रकार के कुछ अन्य कार्यों का भी उल्लेख मिलता है जिनसे अविनीत शिष्य के स्वरूप पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । जैसे :
१. गुरु के द्वारा धर्मोपदेश दिए जाने पर बीच में बोलना, उनके वचनों में दोष निकालना व प्रतिकुल आचरण करना,' २. विषय भोगों में निमग्न रहना, ३. चिरस्थायी क्रोध व अभिमान करना, ४. भिक्षा लाने में आलस्य करना, ५. भिक्षा माँगना अपमान-द्योतकं समझकर भिक्षा लेने नहीं जाना,२ ६. दुष्टवृषभ की तरह संयम में प्रवृत्ति न करना-जैसे कोई दुष्ट-वृषभ बैलगाड़ी में जोते जाने पर तथा गाड़ीवान द्वारा प्रेरित किए जाने पर भी आगे नहीं बढ़ता है तथा कभी समिला ( जुए के छोर पर लगी लकड़ी या बाँस की छोटी कील ) को तोड़ . देता है, कभी क्रोधित होकर गाड़ी को लेकर उत्पथ में भाग जाता है, कभी समीप में बैठ जाता है, कभी गिर पड़ता है, कभी सो जाता है, कभी मंडूक ( मेढ़क ) की तरह उछलताकदता है, कभी तरुण गाय के पीछे भाग जाता है, कभी मृत की तरह स्थिर हो जाता है, कभी पीछे को भागता है, कभी लगाम
. १. सो वि अंतरमासिल्लो दोसमेव पकुव्वई । आयरियाणं तु वयणं पडिकूले इऽभिक्खण ।।
-उ० २७.११. २. इड्ढीगारविए एगे एगेऽत्थ रसगारवे ।
सायागारविए एगे एगे सुचिरकोहणे ॥ भिक्खालसिए एगे एगे ओमाणभीरुए । थड्वे एगे अणुसासम्मी हेऊहिं कारणहि य ।
-उ० २७.६-१०.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org