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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[ १९७ इस तरह इस 'धर्म' शब्द का प्रयोग यहां पर मुक्ति के साधक रत्नत्रय के अर्थ में ही किया गया है। सामान्य व्यवहार में भी अहिंसादि शुभ-कार्यों के करने को 'धर्म' कहा जाता है। मीमांसादर्शन में जिस वैदिक यागादि-क्रिया को 'धर्म' शब्द से कहा गया है। वह यहां पर एक प्रकार के 'कर्म' के रूप में स्वीकृत है। भारतीय धर्म-परम्परा में माने गए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थों में 'धर्म' का ही प्रमुख स्थान है क्योंकि धर्म से ही अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्ति होती है। इस तरह 'धर्म' शब्द का अर्थ है-'मुक्ति का मार्ग' और मुक्ति का मार्ग है – 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ।' अब क्रमशः इन तीनों का ग्रन्थानुसार वर्णन किया जाएगा :
सम्यग्दर्शन ( सत्य-श्रद्धा) सामान्यतौर से सम्यक्-दर्शन शब्द का सम्मिलित अर्थ हैसत्य का देखना या सत्य का साक्षात्कार करना। सत्य का पूर्ण साक्षात्कार चक्षु इन्द्रिय के द्वारा संभव न होने से सत्यभूत जो नव तथ्य बतलाए गए हैं उनके सद्भाव में विश्वास करना सम्यग्दर्शन है। इन तथ्यों में श्रद्धा करने पर चेतन-अचेतन का भेदज्ञान, संसार के विषयों से विरक्ति, मोक्ष के प्रति झकाव, परलोकादि के सदभाव में विश्वास, और चेतनमात्र के प्रति दयादिभाव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के भावों के उत्पन्न होने पर जीव धीरे-धीरे सत्य का पूर्ण साक्षात्कार कर लेता है। अतः जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन के गुणरूप पाँच चिह्न स्वीकार किए गए हैं जिनका १. अथ को धर्मः .....यागादिरेव धर्मः...... चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म' इति ।
-अर्थसंग्रह, लोगाक्षीभास्कर, पृ० ६-८. २. तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं । भावेण सद्दहतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ।
-उ० २८.१५. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।
-त० सू० १.२. तथा देखिए-पृ० १८८, पा० टि० ४.
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