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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[ १९५ पूर्णता संभव है। बिना श्रद्धा के ज्ञान की प्राप्ति में प्रयत्न ही संभव नहीं है । इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता जाता है वैसे-वैसे श्रद्धा में भी दृढ़ता आती जाती है तथा सदाचार में भी प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। यद्यपि ज्ञान की प्राप्ति में सदाचार भी आवश्यक है परन्तु चारित्र की पूर्णता ज्ञान की पूर्णता होने पर ही सम्भव होने से उसे ज्ञान से अधिक दुर्लभ और श्रेष्ठ कहा गया है। धर्म के साधनभूत इन चारों दुर्लभ-अङ्गों की प्राप्ति का फल मुक्ति या ऋद्धिसम्पन्न देवता-पद की प्राप्ति बतलाया गया है।' ___ अन्यत्र भी मोक्ष के साधनभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को 'धर्म' शब्द से कहा गया है। यह 'धर्म' शब्द प्रथम प्रकरण में प्रयुक्त गति. में सहायक 'धर्मद्रव्य' से पृथक् है । इस रत्नत्रयरूप 'धर्म' को संसाररूपी समुद्र में शरणभूत-द्वीप,3 परलोक-यात्रा में सहायक पाथेय और मृत्यु-समय का रक्षक५
१. माणु सत्तम्मि आयाओ जो धम्म सोच्च सद्दहे ।
तवस्सी वीरियं लद्धं संवुडे निद्धणेर यं ॥ सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । निव्वाणं परमं जाइ घयसित्तिव्व पावए ।
-उ० ३.११-१२. २. समीचीन धर्मशास्त्र १.२-३; मनुस्मृति २.१; यशस्तिलकचम्पू ६.२६८. ३. जरामरणवेगेणं वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा गइ सरणमुत्तमं ।।
-उ० २३.६८. ४. अद्धाणं जो महंतं तु सपाहेओ पवज्जई। गच्छंतो सो सुही होइ छुहातहाविवज्जिओ ॥ एवं धम्म पि काऊणं जो गच्छइ परं भवं ।। गच्छंतो सो सुही होइ अप्पकम्मे अवेयणे ।
-उ० १६.२१-२२. ५. एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं न विज्जई अन्नमिहेह किंचि ।
-उ० १४.४०.
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