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१६४] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन चतुरङ्गीय नामक तीसरे अध्ययन में धर्म के साधनभूत उत्तरोत्तर सर्वश्रेष्ठ चार दुर्लभ-अङ्गों का प्रतिपादन करते हुए इन तीन रत्नों को ही गिनाया गया है । वे चार दुर्लभ-अङ्ग इस प्रकार हैं :'
१. मनुष्यत्व-यहां मनुष्यत्व से तात्पर्य श्रेष्ठ-जाति व श्रेष्ठ-कुल आदि से सम्पन्न मनुष्यपर्याय की प्राप्ति से है । मनुष्यपर्याय में ही पूर्ण चारित्र का पालन कर सकना संभव होने से इस पर्याय की प्राप्ति देवादि अन्य पर्यायों की प्राप्ति की अपेक्षा श्रेष्ठ बतलाई गई है। अतः प्रथम तो मनुष्य-जन्म पाना ही कठिन है फिर उसमें भी श्रेष्ठ कूल आदि का प्राप्त होना और भी अधिक कठिन है। इस तरह इस दुर्लभ-अङ्ग में रत्नत्रयरूप धर्म को धारण करने वाले अधि. कारी की दुर्लभता का प्रतिपादन किया गया है।
२. श्रतिश्रवण-शास्त्रज्ञान । यदि किसी तरह मनुष्यता की प्राप्ति हो भी गई तो भी धर्मशास्त्र का ज्ञान मिलना सबको सुलभ नहीं होता है। इस तरह यहाँ सम्यग्ज्ञान की दुर्लभता का प्रतिपादन किया गया है क्योंकि शास्त्र ज्ञान-प्राप्ति के साधन हैं।
३. श्रद्धा-शास्त्रज्ञान की सत्यता में दृढ़ विश्वास का होना। शास्त्रज्ञान हो जाने पर भी उसकी सत्यता में सबको विश्वास होना कठिन है क्योंकि बहुत से लोग शास्त्रज्ञ होकर भी दृढ़-श्रद्धा के अभाव में आचारहीन देखे जाते हैं। इसमें श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन की दुर्लभता का कथन किया गया है। ___ ४. संयम में पुरुषार्थ-सदाचार में प्रवृत्ति । शास्त्रज्ञान और उसकी सत्यता में विश्वास होने पर भी रागादिरूप प्रवृत्ति के कारण सदाचार का पालन करना अत्यधिक कठिन है। यहाँ सम्यकचारित्र की दुर्लभता का कथन किया गया है।
इस तरह धर्म के साधनभूत इन चार दुर्लभ अंगों की प्राप्ति में ज्ञानरूप श्रतिश्रवण का जो श्रद्धा के पूर्व कथन किया गया है वह ज्ञान की प्राप्ति के साधनभूत श्रुति-श्रवण की दुर्लभता की अपेक्षा से है क्योंकि श्रुतिश्रवण और श्रद्धा के बाद ही ज्ञान की १. देखिए-पृ० १०८, पा० दि० २; उ० ३.८-११; आचाराङ्गसूत्र २.१.
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