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१९६] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन कहा गया है। जो धर्म से युक्त है उसका जीवन सफल है'
और वह स्वयं का स्वामी होते हए दूसरों का भी स्वामी है। वही सबान्धव एवं नाथों का भी नाथ (स्वामी) है 3 जो धर्म से युक्त है। इसके अतिरिक्त जो धर्म से हीन है वह अनाथ है। 'धर्म' एक राजमार्ग है जिस पर चलकर प्रत्येक प्राणी सुख का अनुभव करता है तथा 'अधर्म' एक कण्टकाकीर्णमार्ग है जिस पर चलने से प्राणी परेशानियों का अनुभव करता है।५ धर्म सुन्दर है तथा इसका आश्रयण करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह धर्म दैदीप्यमान अग्नि की तरह शुद्ध एवं सरल हृदय में ही ठहरता है। अत : इसके ग्रहण करने में विलम्ब न करने को कहा गया है। १. जा जा वच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई । धम्म च कुणमाणस्स सफला जति राइओ ॥
-उ० १४.२५ तथा देखिए-उ० १४.२४; ४.१; ६.११. २. खंतो दंतो निरारम्भो पव्वईओऽणगारियं । , तो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य ॥
-उ० २०.३४-३५. ३. तुब्भे सणाहा य सबंधवा य जं भे ठिया मग्गि जिणुत्तमाणं । तंसि नाहो अणाहाणं सव्वभूयाण संजया ।।
' -उ० २०.५५-५६. ४. उ० २०.८-१६. ५. जहा सागडिओ जाणं समं हिच्चा महापहं ।
विसमं मग्गमोइण्णो अक्खे भग्गम्मि सोयई । एवं धम्म विउक्कम्म अहम्म पडिवज्जिया। बाले मच्चमुहं पत्ते अक्खे भग्गे व सोयई ।।
-उ० ५.१४-१५. तथा देखिए-उ०१३.२१. ६. देखिए-पृ० १६५, पा० टि० १. ७. धम्मं च पेसलं णच्चा तत्थ ठवेज्ज भिक्खु अप्पाणं ।
-उ० ८.१६. अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो जहिं पवन्ना न पुणब्भवामो।
उ० १४.२८.
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