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प्रकरण ३ . रत्नत्रय
[१८३ को अविपाक-निर्जरा और औपक्रमिक-निर्जरा ( कृत्रिम-निर्जरा ) कहा गया है।' ___. मोक्ष-सभी प्रकार के कर्म-बन्धनों से पूर्ण छुटकारा पाना या चेतन के द्वारा स्व-स्वरूप को प्राप्त कर लेना मोक्ष है। यही जीव का अन्तिम लक्ष्य है जिसे प्राप्त कर लेने पर जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और अनन्त-सुख व शक्तिसम्पन्न हो जाता है । इस अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद चेतन पुन: कभी भी कर्मबन्धन में नहीं पड़ता है।
इन नौ तथ्यों में से पुण्य और पाप के आस्रवरूप होने से तत्त्वार्थसूत्र में इनकी संख्या सात ही गिनाई गई है और इन्हें 'तत्त्व' शब्द से कहा है। जब पुण्य और पाप को आस्रव से पृथक् गिनाया जाता है तब इन्हें ही जैन-ग्रन्थों में 'पदार्थ' शब्द से कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जब केवल जीव और अजीव का कथन किया जाता है तब ये 'द्रव्य' शब्द से कहे जाते हैं। वास्तव में जिस प्रकार वैशेषिकदर्शन में 'द्रव्य' और 'पदार्थ' में भेद है उस प्रकार जैन-ग्रन्थों में द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ (तत्त्वार्थ, अर्थ या तथ्य) इन शब्दों में भेद नहीं किया गया है क्योंकि ये आपस में एक-दूसरे से मिले हुए हैं। इसके अतिरिक्त जैन-ग्रन्थों में जीवादि षडद्रव्यों को 'तत्त्वार्थ' शब्द से तया जीवादि नौ तथ्यों (पदार्थो) को 'अर्थ' शब्द से भी कहा गया है। ऐसा होने पर भी 'द्रव्य' शब्द से लोक १. सर्वार्थसिद्धि ८.२३. २. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः ।
__ - त० सू० १०.२. . ३. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।।।
-त० सू० १.४. ४. जीवाजीवासवबंधसंवरो णिज्जरा तहा मोक्खो। __ तच्चाणि सत्त एदे सपुण्णपावा पयत्था य ॥
- लघु-द्रव्यसंग्रह, गाथा ३. ५. जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आया । तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता ॥
-नियमसार, गाथा ६. जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसि । संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ॥
-पंचास्तिकाय, गाथा १०८.
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