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.१८२] उत्तराव्ययन-सूत्र : एक परिशीलन पूर्वक किए गए सभी पुण्यकर्म आस्रवरूप हैं और फलाभिलाषा. के बिना किए गए निष्काम कर्म संवररूप हैं। अतः अनास्रवी का लक्षण बतलाते हुए ग्रन्थ में कहा है-'प्राणिवध, मृषावाद, चोरी, मैथुन, धनसंग्रह, रात्रिभोजन तथा चार कषायों से रहित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति में सावधान जितेन्द्रिय जीव अनास्रवी कहलाता है।'' अर्थात् अशुभ-कार्यों का सर्वथा त्याग करके शुभकार्यो में सावधानीपूर्वक फलाभिलाषा से रहित होकर प्रवृत्ति करना संवर का कारण है। ग्रन्थ में इस प्रकार के संवर का फल आस्रवनिरोध के बाद ऋद्धि-सम्पन्न देवपद या सिद्धपद (मुक्ति) की प्राप्ति बतलाया है ।
८. निर्जरा-पूर्वबद्ध कर्मों को आत्मा से अंशतः · पृथक् करना। यह मोक्ष के प्रति साक्षात् कारण है । यद्यपि प्रतिक्षण कर्मों की कुछ न कुछ निर्जरा होती रहती है परन्तु कुछ निर्जरा तपस्या आदि के द्वारा बलात भी की जाती है। इसीलिए इस निर्जरा को दो भागों में बाँट सकते हैं : १. सामान्य-निर्जरा और २. विशेषनिर्जरा। अपने आप स्वाभाविक रीति से बिना प्रयत्न के प्रतिक्षण कर्मों का फल देकर चेतन से पृथक हो जाना सामान्य-निर्जरा है । इस प्रकार की निर्जरा में जीव को कोई प्रयत्नविशेष नहीं करना पड़ता है । अतः प्रकृत में इसका विचार आवश्यक नहीं है। दूसरे प्रकार की निर्जरा का अर्थ है-तपादि साधनों के द्वारा कर्मों को बलात् उदय में लाकर चेतन से पृथक कर देना । इसीलिए जैन-ग्रन्थों में सामान्य निर्जरा को सविपाक-निर्जरा तथा अनौपक्रमिक-निर्जरा (अकृत्रिम-निजेरा) कहा गया है। इसके अतिरिक्त विशेष-निजेरा १. पाणिवहमुसावाया अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ ।
राई भोयणविरओ जीवो भवइ. अणासवो ॥ पंचसमिओ तिगुत्तो अकसाओ जिइंदिओ। अगारवो य निस्सल्लो जीवो होइ अणासवो ।
-उ० ३०. २-३. २. उ० २६.५५; ५.२५, २८. ३. एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा।
-सर्वार्थसिद्धि १.४. .
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