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१८०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ५. पाप ( हिंसादि अशुभ-कार्य ), ६. आस्रव ( चेतन के पास अचेतन कर्मों के आने का द्वार ), ७. संवर (चेतन के साथ अचेतन का सम्बन्ध कराने वाले कारण का निरोध ), ८. निर्जरा (चेतन से अचेतन का अंशतः पृथक्करण ) और ६. मोक्ष ( चेतन का अचेतन से पूर्ण स्वातन्त्र्य ) । इन्हें मुख्यतः पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है : ।
१. चेतन व अचेतन तत्त्व-जीव और अजीव । २. संसार या दुःख की अवस्था-बन्ध । ३. संसार या दु:ख के कारण-पुण्य, पाप और आस्रव । ४. संसार या दुःख से पूर्ण निवृत्ति-मोक्ष। ५. संसार या दुःख से निवृत्ति का उपाय - संवर और निर्जरा। . संसार या दुःख का कारण कम-बन्धन है और उससे छुटकारा पाना मोक्ष है। चेतन ही बन्धन और मोक्ष को प्राप्त करता है तथा अचेतन ( कर्म ) से बन्धन और मोक्ष होता है। पुण्य और पापरूप प्रवृत्ति से प्रेरित होकर अचेतन कर्म चेतन के पास आकर ( आस्रवित होकर ) बन्ध को प्राप्त होते हैं। इन अचेतन कर्मों के आने को रोकना ( संवर ) तथा पहले से आए हए कर्मों को पृथक् करना (निर्जरा ) मोक्ष के लिए आवश्यक है। इस तरह बन्ध, मोक्ष, चेतन, अचेतन, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर और निर्जरा ये नौ सार्वभौम सत्य होने से तथ्य ( तत्त्व ) कहे गए हैं। इनके स्वरूपादि इस प्रकार हैं :
१. जीव-चेतन द्रव्य । इसे ही बन्धन और मोक्ष होता है।
२. अजीव-अचेतन द्रव्य । विशेषकर वह अचेतन द्रव्य (कर्मपुद्गल) जिसके सम्बन्ध से चेतन बन्धन को और वियोग से मुक्ति को प्राप्त होता है।
३. पुण्य-चेतन के द्वारा किए गए अहिंसा आदि शुभ-कार्य । ४. पाप-चेतन के द्वारा किए गए हिंसा आदि अशुभ-कार्य ।
५. आस्रव-मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से पुण्य और पापरूप कर्मों का चेतन के पास आना ।' आस्रव से सामान्यतया
१. कायवाङ मनःकर्म योगः । स आस्रवः । शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ।
त० सू० ६.१-३.
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