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प्रकरण ३ : रत्नत्रय
[१८७ चारित्र के बिना कर्म से मुक्ति नहीं मिलती और कर्म से मुक्ति के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। सच्चे विश्वास के अभाव में सम्यक चारित्र हो ही नहीं सकता। इसके अतिरिक्त जहाँ सच्चा विश्वास है वहाँ सच्चा चारित्र हो या न हो उभय कोटियाँ ( भजनीय) संभव हैं। किञ्च, सच्चे विश्वास (सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन) और सच्चे चारित्र के साथ-साथ उत्पन्न होने पर पहले विश्वास (सम्यक्त्व) की ही उत्पत्ति होगी।' इस तरह मुक्ति के लिए सर्वप्रथम तथ्यों में श्रद्धा फिर उनका सम्यकज्ञान और तदनुसार आचरण आवश्यक है। यद्यपि ग्रन्थ में ऐसे भी स्थल हैं जहाँ पर विश्वास (श्रद्धा या सम्यग्दर्शन), ज्ञान और सदाचार को पृथकपृथक् तथा उनके प्रत्येक अंश को लेकर (साक्षात या परम्परया) मोक्ष के प्रति स्वतन्त्र रूप से कारण बतलाया गया है; कहीं-कहीं इन तीन के अतिरिक्त तप, क्षमा निर्लोभता आदि कारणों को भी पृथकरूप से जोड़कर चार, पाँच, छः आदि कारणों को गिनाया गया है। परन्तु परीक्षण से ज्ञात होता है कि जहाँ-जहाँ पृथक्-पृथक् अंश को लेकर मुक्ति के प्रति कारणता बतलाई गई है वहाँ-वहाँ उन-उन अंशों में अन्य अंश गतार्थ हैं तथा उस अंशविशेष का महत्त्व बतलाने के लिए ऐसा किया गया है। इसी प्रकार जहाँ श्रद्धा, ज्ञान और सदाचार के साथ तप, क्षमा आदि का सन्निवेश किया गया है वहाँ भी तपादि अंशों के महत्त्व पर जोर देने के लिए उन्हें अलग से जोड़ा गया है अन्यथा तप, क्षमा आदि अन्य सभी कारण सदाचार, ज्ञान एवं विश्वासरूप कारणत्रय में ही गतार्थ हैं। इस कथन की पुष्टि में मैं यहाँ पर उत्तराध्ययन से कुछ प्रसङ्ग उद्धृत करता हूँ : १. नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहणं दसणे उ भइयत्र । सम्मत्तचरित्ताई जुगवं पुत्वं व सम्मतं ।। नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुँति चरणगुण।। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।।
-उ० २८.२६-३०. २. विशेष के लिए देखिए-उ०, अध्ययन २८-२६, ३१.
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