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प्रकरण २ સંસાર
चेतन ( जीव ) के साथ रूपी-अचेतन ( पुद्गल ) का संयोगविशेष होना ही संसार है। अतः जबतक चेतन जीव के साथ रूपीअचेतन पुद्गल का सम्बन्ध रहता है तबतक जीव 'संसारी' कहलाता है। संसार शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-संसरण या परिभ्रमण । यह संसरण मुख्य रूप से चार अवस्थारूप बतलाया गया है जिन्हें गति कहते हैं। उनके नाम हैं-नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । इन चार गतियों में अपने शुभ और अशुभ कर्मों के कारण जीव का जन्म-मरण को प्राप्त होना ही संसार है।' इसीलिए ग्रन्थ में संसार या संसारचक्र को जन्म, जरा और मरण के भय से अभिभूत बतलाया है तथा उसे 'भव' या 'भवप्रपञ्च' भी कहा है। - संसार की दुःखरूपता .. नरकादि चारों गतियां जरा-मरणरूप संसार-कान्तार की चार भयंकर खाने हैं। ये दुस्सह एवं भयंकर शब्दों तथा दुःखों
१. एवं भवसंसारे संसरइ सुहासुहेहिं कम्मेहि
-उ० १०.१५. २. जाईजरामच्चु भयाभिभूया बहिं विहाराभिनिविट्ठचित्ता। . संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा दळूण ते कामगुणे विरत्ता ॥
-उ० १४.४. तथा देखिए-उ० २३.८४; ३६.६३. ३. जरामरणकंतारे चाउरते भयागरे । मए सोढाणि भीमाई जम्माई मरणाणि य ।
-उ०१६.४७. तथा देखिए-उ० २६.२२, ३२, ५६.
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