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प्रकरण २ : संसार
[ १३५ गया है कि इनसे जीव विषयभोगों को भोगता है जिससे शरीर की शक्ति नष्ट होती है और वह अकालमरण को प्राप्त करता है। इस तथ्य का वर्णन ग्रन्थ में बहत विस्तार से मिलता है। जैसे :१ चक्षु-इन्द्रिय के विषय रूप, श्रोत्रेन्द्रिय के विषय शब्द, घ्राणेन्द्रिय के विषय गन्ध, रसनेन्द्रिय के विषय रस, स्पर्शनेन्द्रिय के विषय स्पर्श और मन के विषय भावरूप राग-द्वेष से प्रेरित होकर जीव उनके उत्पादन एवं रक्षण में नाना प्रकार की हिंसादि क्रियाओं में प्रवत्त होता है और उनके संभोगकाल में भी संतोष को प्राप्त न होता हआ असमय में मृत्यु को प्राप्त करता है। जैसे : रूप (प्रकाश) में अत्यन्त आसक्त पतङ्गा, शब्द में आसक्त हरिण, औषधि की गन्ध में आसक्त सर्प, रस में आसक्त मत्स्य, शीतल जल के स्पर्श में आसक्त महिष-ग्राह और कामभोगों में आसक्त हाथी। इसी प्रकार द्वेष करने वाला भी स्वयं के भावों को कलुषित करके दुःखी होता है। इस तरह ग्रन्थ में जब पृथक-पृथक इन्द्रिय के विषय की आसक्ति का फल अकालमरण बतलाया गया है तो फिर सभी इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति का फल कितना भयावह नहीं हो सकता है ? इसीलिए इन्द्रियों को चोररूप कहा गया है अन्यथा ये इन्द्रियाँ ज्ञानादि की प्राप्ति में सहायक हैं।
इसी प्रकार नत्य, गीत, आभूषण, नारीजनों का परिवार आदि संसार के सभी भोग्य विषय जिनकी प्राप्ति बड़ी मुश्किल से होती है और जो भोगने में सुखरूप प्रतीत होते हैं उनमें भी वास्तव में निमेषमात्र भी सुख नहीं है । ये श्लेष्मा में फसने वाली मक्षिका
की तरह कर्म-जाल में बाँधने वाले हैं। ऐसी स्थिति में पिंजड़े में · स्थित पक्षी और बन्धन में स्थित मृग की तरह इन विषयभोगों में
१. उ० ३२.२२-६६. २. सब्वभवेसु अस्साया वेयणा वेदिता मए । निमिसंतरमित्तंपि जे साया नत्थि वेयणा ।।
-उ० १६.७५. तथा देखिए-उ० ७.८; १४.२१,४१ आदि ।
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