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प्रकरण २ : संसार .
[१६३ . से है ।' कर्मों की संख्या कभी भी सिद्ध जीवों की अपेक्षा कम नहीं हो सकती है क्योंकि वे कभी न कभी संसार में कर्मबद्ध अवश्य रहे । होंगे। जब संसार-स्थिति के बिना मुक्त जीवों की कल्पना नहीं की गई है तो फिर कर्मों की संख्या सिद्ध जीवों की अपेक्षा किसी भी तरह कम नहीं हो सकती है। इसके अतिरिक्त जब एक-एक जीव के साथ कई-कई कर्म-परमाणु बंधे हुए हैं तो फिर उनकी संख्या कम कैसे हो सकती है ? एक समय में बंधने वाले कर्मों की इस संख्या को ग्रन्थ में 'प्रदेशाग्र' कथन द्वारा बतलाया गया है। . ___ जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि कर्म-परमाणुओं का आत्मा. के साथ नीर-क्षीर की तरह सम्बन्ध है तथा ये कर्म-परमाण समस्त लोक में व्याप्त हैं । अतः सभी आत्माएँ सब प्रकार के कर्मपरमाणुओं का संचय छहों दिशाओं से कर सकती हैं।२
बंधने वाले कर्म आत्मा के साथ कम से कम और अधिक से अधिक कितने समय तक रहते हैं, इस विषय में ग्रन्थ का अभिप्राय निम्न प्रकार है : कर्मों के नाम अधिक से अधिक कम से कम
स्थिति-काल - स्थिति-काल ज्ञानावरणीय, दर्शना- ३० कोटाकोटिसागरोपम ) अन्तर्मुहूर्त वरणीय वेदनीय और (करोड़ x करोड़ = 7 (करीब ४८
अन्तराय ) कोटाकोटि) ...) मिनट) मोहनीय
७० कोटाकोटिसागरोपमा आयु
३३ सागरोपम . नाम और गोत्र २० कोटाकोटि सागरोपम आठ मुहूर्त १. सव्वेसि चेव कम्माणं पएसग्गमणंतगं । गंठियसत्ताईयं अंतो सिद्धाण आहियं ॥
-उ० ३३. १७. तथा देखिए-पृ० १६५, पा० टि०.१. २. सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सम्वेसु वि पएसेसु सव्वं सवेण बद्धगं ।।।
-उ० ३३.१८. ३. उ० ३३.१६-२३; त० सू० ८.१४-२०. ४. तत्त्वार्थ सूत्र (८.१८) में वेदनीय की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त के स्थान
पर १२ मुहूर्त बतलाई है-'अपरा द्वादशमुहूती वेदनीयस्य' । यहाँ पर
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