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१७२ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन . . शुभ-लेश्याएँ ही पाई जाती हैं परन्तु भवनपति और व्यन्तर देवों में कृष्णादि तीन अशुभ-लेश्याएँ भी पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, सौधर्म और ईशान देवों में तेजो लेश्या पाई जाती है। सनत्कुमार से लेकर ब्रह्म देव पर्यन्त पदमलेश्या होती है । लान्तक देवों से लेकर सर्वार्थ सिद्धि के देवों पर्यन्त शुक्ल-लेश्या होती है।' ___ इस तरह इस लेश्या-विषयक वर्णन से ज्ञात होता है कि किस लेश्यावाले जीव कहाँ रहते हैं और कौन जीव किस प्रकार के कर्मों से बद्ध हैं ? इसके अतिरिक्त कर्म और लेश्याओं का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध भी है। पुण्यरूप कर्मों से शुभ लेश्याओं की प्राप्ति होती है और पापरूप कर्मों से अशुभ लेश्याओं की प्राप्ति होती है। पुण्य और पापरूप कर्मों से जिस प्रकार की शुभ या अशुभ लेश्या की प्राप्ति होती है जीव तदनुसार ही आचार में प्रवृत्त होता है। प्रवत्ति करने से कर्म-बन्ध होता है और कर्म-बन्ध से पुनः लेश्या की प्राप्ति होती है। इस तरह संसार का चक्र चलता रहता है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि जीव इस चक्र से कभी भी छटकारा नहीं पा सकता है अपितु प्रयत्न करने पर इस चक्र से मुक्त भी हो सकता है। वस्तुतः ये लेश्याएँ कर्म-सिद्धान्त की पूरक हैं। कर्मों के विनष्ट होने पर लेश्याओं का भी अभाव हो जाता है। आत्मा के साथ कर्म-बन्ध की प्रक्रिया को समझाने के लिए इन लेश्याओं का वर्णन किया गया है। अतः गोम्मटसार में लेश्या का स्वरूप बतलाते हुए कहा है-'जिसके द्वारा जीव पुण्य और पापरूप कर्मों से लिप्त होवे या कषायोदय से अनुरक्त मन, वचन और काय की प्रवृत्ति लेश्या है ।'२ इस तरह लेश्याएं मनुष्यों के उस आचरण को समझाती हैं जिससे रंजित होने पर शुभाशुभ कर्म आत्मा से बन्ध को प्राप्त होते हैं। इस लेश्या-विषयक निरूपण से भारतीय रंग-विषयक दृष्टिकोण का भी पता चलता है।
१. उ० ३४. ४७-५५. २. लिंपइ अप्पीकीरइ एदीए णिय अपुण्णपुणं च ।
'-गो० जी० ४८८. तथा देखिए-गो० जी० ५३२.
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