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प्रकरण २ : संसार
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৪ানুহীন इस प्रकरण में संसार से सम्बन्धित तीन प्रमुख सिद्धान्तों की चर्चा की गई है : १. संसार की दुःखरूपता, २. संसार या दु:ख के कारण और ३. कर्म-बन्धन । इन तीनों सिद्धान्तों का विश्लेषण आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया है जो क्रमशः इस प्रकार है :
१. भारतीय धार्मिक ग्रन्थों की तरह उत्तराध्ययन में भी इस संसार को जिसमें जीव जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं, दुःखों से पूर्ण बतलाया है। शरीर के नश्वर होने तथा इच्छाओं के अनन्त होने के कारण हमें जो सुख प्रतीति में आते हैं वे भी दु.खरूप ही हैं। देव और मनुष्य पर्याय जो सुगतिरूप एवं श्रेष्ठ मानी जाती हैं उन्हें भी दुर्गतिरूप बतलाने का उद्देश्य है जीवों को विषय-भोगों की तरफ से निरासक्त करके असीम व अनन्त सुख की ओर प्रेरित करना। क्योंकि जब तक सांसारिक विषय भोगों को दुख.रूप एवं नश्वर नहीं चित्रित किया जाएगा तब तक उनसे विरक्ति नहीं हो सकती है। देवपर्याय में जो दुःखों का वर्णन किया गया है उसका कारण है देवपर्याय और उन दैविक भोग्य-विषयों का चिरस्थायी न होना। कई स्थानों पर देवों के ऐश्वर्य को श्रेष्ठ बतलाया गया है तथा उसे श्रेष्ठ गति (सुगति) भी कहा गया है। यही स्थिति मनुष्य गति के जीवों की भी है।
इस विवेचन का यह तात्पर्य नहीं है कि प्रकृत-ग्रन्थ अवास्तविकता का प्रतिपादन करता है। हम स्वयं अनुभव करते हैं कि विषयभोगों की सीमा अनन्त है और कितने ही सुख-साधन हमें क्यों न उपलब्ध हो जाएँ शान्ति नहीं मिलती है। शान्ति एव सुख अपने अन्दर है। यदि हमारी इच्छाएँ सीमित हैं तो हमें सुख मिलता है अन्यथा हम और अधिक प्राप्त करने के लिए व्यग्र रहते हैं। ये विषय-भोग न तो सुख के और न दुःख के ही कारण हैं परन्तु विषय-भोगों की आसक्ति और घणा दुःख के कारण बन जाते हैं। अतः ग्रन्थ में निरासक्त होकर विषयभोगों के उपभोग का उपदेश दिया गया है।
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