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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । की गई मन-वचन-काय की प्रवृत्ति से कर्म-परमाणुओं (कार्मणवर्गणारूपी अचेतन पद्गल द्रव्यविशेष ) का दूध और पानी की तरह जीव के आत्म-प्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाही (सम्बन्ध) होना। यद्यपि इस तरह जीव की प्रत्येक क्रिया का निमित्त पाकर कर्मपरमाणुओं का आत्मा के साथ बन्ध हो सकता है परन्तु प्रकृत. ग्रन्थ में प्रत्येक क्रिया के निमित्त से कर्मबन्ध स्वीकार नहीं किया गया है अपितु संसार-परिभ्रमण में कारणभूत रागद्वेष के निमित्त से होनेवाली मन-वचन-काय की क्रिया ही जीव के साथ कर्मपरमाणुओं का बन्ध कराती है। जिन क्रियाओं में रागद्वेष की निमित्तकारणता नहीं है वे भी यद्यपि कर्म हैं परन्तु वे जीव के साथ बन्ध को प्राप्त नहीं होते हैं। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए ग्रन्थ में एक दृष्टान्त दिया गया है :
जिस प्रकार किसी दीवाल पर एक साथ मिट्टी के दो ढेले (आर्द्र और शुष्क) फेंकने पर दोनों ढेले उस दीवाल तक पहुँचते तो अवश्य हैं परन्तु उनमें से जो आर्द्र ढेला होता है वह दीवाल से चिपक जाता है और जो शुष्क ढेला होता है वह दीवाल से चिपकता नहीं है। उसी प्रकार जो जीव काम-भोगों की लालसा ( रागद्वेष की भावना) से युक्त हैं उनके साथ कर्म-परमाणुओं का बन्ध हो जाता है और जो वीतरागी हैं उनके साथ कर्मपरमाणओं का बन्ध नहीं होता है। अतः जो भोगों की लालसा से युक्त होते हैं वे कर्मबन्ध के कारण संसार में परिभ्रमण करते हैं और जो भोगों की लालसा से रहित हैं वे कर्मबन्धन से मुक्त हो जाते हैं।' १. उवलेवो होइ भोगेसु अभोगी नोवलिप्पई ।
भोगी भमई संसारे अभोगी विप्पमुच्चई ॥ उल्लो सुक्खो य दो छूटा गोलया मट्टियामया। दोवि आवडिया कुड्डे जो उल्लो सो स्थ लग्गई ।। एवं लग्गन्ति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा। विरत्ता उ न लग्गन्ति जहा से सुक्कगोलए ।
-उ० २५४१-४३. विशेष-यदि इस दृष्टान्त में आर्द्रता और शुष्कता मिट्टी के ढेलों की अपेक्षा दीवाल में बतलाई जाती तो अधिक उचित होता।
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