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प्रकरण २ : संसार
[१४५ विषय में ग्रन्थ का मत है कि राग की उत्कट-अवस्थारूप मोह (मूर्छाभाव) ही रागद्वेष का जनक है।' यह मोह भी अज्ञानमूलक राग की उत्कटावस्थारूप मूर्छाभाव से अतिरिक्त कुछ नहीं है। मोह के रागात्मक होने के कारण ग्रन्थ में कहीं-कहीं राग-द्वेष के साथ मोह को भी कर्मबन्ध एवं दुःख का कारण बतलाया गया है।'
इस मोह के अज्ञानमूलक होने से मोह का भी मूल कारण अज्ञान (अविद्या) स्वीकार किया गया है । अतः ग्रन्थ में भी कहा है-'जो पुरुष ज्ञान से विहीन हैं वे सब दुःखोत्पत्ति के स्थानभूत हैं तथा वे मूढ़ होकर अनन्त संसार में बहुत बार ( जन्म-मरणादि से ) पीडित होते हैं। जो ज्ञानवान हैं वे बन्धन के कारणों को जानकर सत्य की खोज करते हैं और सब जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखते हैं।'
तृष्णा व लोभ-अज्ञान और मोह के बीच में जिन दो अन्य कारणों को ग्रन्थ में बतलाया गया है उनके क्रमशः नाम हैं-तृष्णा और लोभ । १. अमोहणे होइ निरंतराए ।
-उ० ३२.१०६. तथा देखिए-पृ० १४१, पा० टि० २; १४६, पा० टि० २;
उ० ५.२६; ८.३; १४.२०; १६.७; २१.१६ आदि । २. रागं च दोसं च तहेव मोहं उद्धत्तु कामेण समूलजालं ।
-उ० ३२.६. तथा देखिए-पृ० १४१, पा० टि० २, पृ० १४५, पा० टि० ४. ३. जावन्तविज्जा पुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पन्ति बहुसो मूढा संसारम्मि अणन्तए । समिक्ख पंडिए तम्हा पासजाइपहे बहू ।। अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेति भूए सु कप्पए ।
-उ० ६.१-२. जहा वयं धम्ममजाणमाणा पावं पुरा कम्ममकासि मोहा ।
-उ० १४.२०. तथा देखिए-उ० २८.२०; २६.५-६,७१ आदि । ४. दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो मोहो हो जस्स न होइ तप्हा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो लोहो हो जस्स न किंचणाई।
-उ० ३२.८.
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