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प्रकरण २ : संसार
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तिर्यञ्च व नरकगति के कष्ट :
देवगति और मनुष्यगति के अतिरिक्त तिर्यञ्च और नरकगति भौतिक सुख-सुविधाओं की भी दृष्टि से दुर्गतिरूप ही हैं । अतः ग्रन्थ में इन्हें आपत्ति एवं वधमूलक बतलाया गया है और जहां से निकलना बड़ा कठिन है ।' इन दोनों में भी नरकगति अत्यधिक कष्टों से पूर्ण है। इस नरकगति में प्राप्त होने वाले कष्ट मनुष्यगति के कष्टों से अनन्तगुणे अधिक हैं। मृगापुत्र ने संसार के विषय-भोगों से विराग लेते समय अपने पिताजी से उन नारकीय कष्टों का वर्णन संक्षेप में निम्न प्रकार से किया है : २
'हे पिताजी ! जिस प्रकार की वेदनाएँ (कष्ट) इस मनुष्यगति में देखी जाती हैं उससे अनन्तगुणी अधिक नरकों में हैं। ये अत्यन्त तीव्र, प्रचण्ड, प्रगाढ़, रौद्र, दुस्सह और भयंकर हैं। जैसे-प्रज्वलित अग्नि पर रखे हुए कुन्दकुम्भी नामक बर्तन में नीचे सिर और ऊपर पैर करके अनेक बार महिष की तरह पकाना; महादावाग्नि के समान उष्ण बालुकामय प्रदेशों में संतापित करना; अतितीक्ष्ण काँटों वाले उच्च शाल्मलिवृक्ष पर क्षेपण करके रस्सी आदि से कर्षापकर्षण करना; विभिन्न प्रकार के अतितीक्ष्ण शस्त्रों से छेदन-भेदन करके टुकड़ों के रूप में वृक्ष के टुकड़ों की तरह जमीन पर फेंकना; शकरों एवं कुत्तों के द्वारा घसीटा जाना; ईख की तरह महायन्त्रों में पेरा जाना; आग के समान तप्त लोहे के रथ में जोते जाकर चाबुकों (बेंत) से पीटा जाना; संडासी की तरह चोंच वाले नाना प्रकार के गीध
.. १. दुहओ गई बालस्स आवई वहमूलिया। . देवत्तं माणुसत्तं च ज जिए लोलयासढे ॥ तओ जिए सई होइ दुविहं दुग्गइं गए। ढुल्लहा तस्स उम्मग्गा अद्धाए सुचिरादवि ॥
-उ०७० १७.१८. तथा देखिए-उ० १६.११; ३४.५६; ३६.२५७ आदि । २. उ० १६.४८-७४; ५.१२-१३; ६.८.
विशेष के लिए देखिए-सूत्रकृताङ्गसूत्र १.५; प्रश्नव्याकरण अध्ययन १.
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