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८४] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन है। यदि अरणि में अग्नि, दूध में घी, और तिल में तैल पहले से विद्यमान न हो तो वे उनसे उत्पन्न ही नहीं हो सकते हैं। यदि इस तरह असत से भी सत पैदा होने लगे तो फिर तैल आदि के लिए तिलों को ही क्यों खोजा जाता है ? बालू आदि के द्वारा क्यों नहीं तेल आदि निकाला जाता है ? __इसके अतिरिक्त यदि शरीर से चेतन-द्रव्य पृथक नहीं है तो फिर क्या कारण है कि मृत-पुरुष को शरीर के वर्तमान रहने पर भी सुख-दु:ख आदि का अनुभव नहीं होता है ? विशेषावश्यके-भाष्य में बतलाया गया है कि मृत-शरीर में यदि वायु का अभाव हो जाता है तो पम्प आदि के द्वारा हवा भरने पर उसे जीवित हो जाना चाहिए। यदि उसमें तेज का अभाव हो जाता है तो वायु की तरह तेज का प्रवेश कराने पर उसे जीवित हो जाना चाहिए। यदि उसमें विशिष्ट-प्रकार के तेज का अभाव है तो वह विशिष्ट-तेज क्या है ? आत्मा से अतिरिक्त वह तेज कुछ भी नहीं है।' किञ्च, जिसका निषेध किया जाता है उसकी सत्ता अवश्य रहती है। इसीलिए उत्तराध्ययन में भी शरीर को जीवत्व के अभाव में तुच्छ कहा है। इसी प्रकार के अन्य अनेक तर्कों द्वारा प्रायः सभी आत्मवादी भारतीय दर्शन जीव या आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि करते हैं। १. स्याद्-अज्ञातोपालम्भोऽयं, तस्या भूतसमुदायोपलब्धिसिद्धेः, न मृत
शरीरे व्यभिचारात्, तत्र वाय्वाभावे न व्यभिचार इति चेत्, न, नलिकाप्रयोगप्रक्षेपेऽप्यनुपलब्धेः, तेजो नास्तीति चेत्, न, तस्यापि तथैव क्षेपेऽनुपलब्धः, विशिष्टं तेजो नास्तीति चेत् आत्मभाव इत्यारभ्यतां तहि भूम्यालिङ्गनम् ।
" -विशेषावश्यकभाष्यटीका-तृतीयगणधर, पृ० ५१७. २. यनिषिध्यते तत् सामान्येन विद्यते एव ।
-षड्दर्शनसमुच्चय-गुणरत्न, पृ० ४८-४६ पाश्चात्यदर्शन में आधनिक-युग के संस्थापक देकार्त भी इसी तरह आत्मा की सिद्धि करते हैं।
-देखिए-पाश्चात्यदर्शन, पृ० ८६-८८. ३. तं एक्कगं तुच्छशरीरगं से।
-उ० १३.२५.
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