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उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन जीवों के भेद-जीवों की संख्या ग्रन्थ में कालद्रव्य की तरह अनन्त बतलाई गई है।' हवा, पानी, पृथिवी, अग्नि, पौधा, कुत्ता, बिल्ली, पशु, स्त्री, पुरुष आदि में सर्वत्र जीवों की सत्ता मानी गई है। इन सभी जीवों को सर्वप्रथम मुक्त और बद्ध की दष्टि से दो भागों में विभाजित किया गया है। इन्हें ही क्रमशः 'सिद्ध' और 'संसारी' के नाम से कहा गया है। इन्हें क्रमशः 'अशरीरी' और 'सशरीरी' भी कह सकते हैं क्योंकि सभी मुक्त-जीव शरीररहित होते हैं और सभी संसारी-जीव शरीर-सहित । ऐसा कोई भी समय या स्थान नहीं है जब संसारी-जीव शरीर-रहित रहता हो। मृत्यु के उपरान्त (एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में जाते समय) भी वह एक विशेष-प्रकार के शरीर ( कार्मण-शरीर ) से युक्त रहता है। इन सिद्ध और संसारी जीवों के स्वरूपादि अधोलिखित हैं :
१. सिद्ध-जीव-जो बन्धन से रहित स्वस्वरूप में स्थित हैं उन्हें सिद्ध-जीव कहते हैं। ये बन्धन का अभाव होने से 'मुक्त', शरीर से रहित होने के कारण 'अशरीरी', और पूर्ण-ज्ञान से युक्त होने के कारण 'बुद्ध' कहलाते हैं। इनका निवास लोक के ऊर्ध्वभाग ( लोकान्त ) में बतलाया गया है। इनका आकार पूर्व-जन्म के शरीर की अपेक्षा भाग न्यून होता है। ये अनंत-दर्शन और अनन्त-ज्ञान के साथ अनन्त-सुख से भी युक्त होते हैं। इनके सुखों के समक्ष हमारे सुख तुच्छ ( नगण्य ) हैं। इनका संसार में पूनः आगमन नहीं होता है। आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप बतलाया गया है वे उसी स्वरूप में सर्वदा रहते हैं।
यद्यपि सिद्ध जीवों के ज्ञान, दर्शन, सूख आदि में कोई भेद नहीं है क्योंकि सभी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्त सुखों से युक्त तथा १. देखिए-पृ० ७४, पा० टि० १. २. संसारत्था य सिद्धा य दुविहा जीवा वियाहिया।
उ० ३६.४८,२४६० संसारिणो मुक्ताश्च ।
-त० सू० २.१०. ३. उ० १०.३५; ३६.४८-६७; विशेष के लिए देखिए-प्रकरण ६.
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