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"प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[८७ अतः ग्रन्थ में कहा है-आत्मा अपना कर्ता, विकर्ता (उत्थान
और पतन का), अच्छा मित्र, खराब शत्रु, वैतरणी नदी ( एक नारकी नदी जो दुःखकर है), कटशाल्मलि वृक्ष (दुःख देने वाला पेड़), कामदुधा धेनु तथा नन्दन वन (ये दोनों सुखकर हैं) है।' इसका तात्पर्य है कि आत्मा जैसा चाहे वैसा कर्म करके अपने को अच्छे या खोटे मार्ग पर ले जा सकता है। यदि अच्छा काम करता है तो अपना सबसे बड़ा मित्र है, कामधेनु है तथा नन्दनवन है। यदि बुरे कार्य करता है तो अपना सबसे बड़ा शत्रु है, वैतरणीनदी है तथा कूट शाल्मलि वृक्ष है। इसमें ईश्वर-कर्तक कोई हस्तक्षेप नहीं है। जीव जैसा करता है वैसा ही भोगता है। अच्छे कर्म करता है तो सुखी होता है और बुरे कर्म करता है तो दुःखी होता है। ____५. जीव ऊर्ध्वगमन-स्वभाववाला है २- मुक्त-जीवों का निवास लोक के ऊर्ध्वभाग में माना गया है। अतः जीव का स्वभाव भी ऊर्ध्वगमन वाला होना चाहिए जोकि बन्धन के कारण नीचे (संसार में) पड़ा हुआ है। यदि ऐसा न माना जाता तो मुक्त-जीवों को वहीं रहना पड़ता जहां शरीर का त्याग करते हैं। __इस तरह ग्रन्थ में जीव को ज्ञान-दर्शन स्वभावरूप चेतनगुण के अतिरिक्त अमूर्त, नित्य, स्वदेह-परिमाण, कर्ता, भोक्ता, स्वतन्त्र, ऊर्ध्वगमनस्वभाव तथा नश्वर संसार में सारभूत द्रव्य माना है। जीव का ऐसा ही स्वरूप अन्य जैन ग्रन्थों में भी मिलता है। १. वही। २. अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्ठिया । __इहं बोदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई ।।
-उ० ३६. ५६. तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् ।"तथागतिपरिणामाच्च ।
-त० सू० १०.५-६. ३. जीवो उवओगमओ अमुत्तिकत्ता सदेह परिमाणो । भोत्ता संसारत्थो मुत्तो सो विस्ससोड्ढगई ।।
-द्रव्यसंग्रह, गाथा २. तथा देखिए-भगवतीसूत्र २.१०; १३.४; स्थानाङ्ग ५.३.५३०; नवपदार्थ, पृ० २६.
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