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प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[६१ दूसरे विभाग में रख सकते हैं। यहाँ स्थूलता से तात्पर्य लम्बेचौड़े शरीर से तथा सूक्ष्मता से तात्पर्य छोटे-शरीर से नहीं है अपितु जो दीवाल आदि से अग्नि की किरणों की तरह रुकें नहीं वे सूक्ष्म हैं और जो रुक जावें वे स्थूल हैं। इस विषय में ग्रन्थ में एक कर्म-विशेष (नामकर्म स्वीकार किया है जिसका आगे वर्णन किया जाएगा।
३. शरीर की उत्पत्ति (जन्म) -जो माता-पिता का संयोग होने पर माता के गर्भ से उत्पन्न होवें वे गर्भज' हैं। जो माता-पिता के संयोग के बिना यत्र-तत्र अपवित्र स्थानों में पैदा होवें वे 'सम्मूच्छिम' हैं। जो किसी स्थान-विशेष से ऐसे उठकर खड़े हो जावें मानो सोकर जाग रहे हों, वे 'उपपादजन्म' वाले जीव हैं। मनुष्य और पशु आदि में प्रथम दो प्रकार के जन्म संभव हैं। देव और नारकियों में तृतीय प्रकार का जन्म होता है। इस तरह शरीर की उत्पत्ति (जन्म) के आधार से संसारी जीवों के तीन भेद होते हैं ।
४. शरीर की पूर्णता तथा अपूर्णता२-शरीर की पूर्णता से तात्पर्य है-जिस जीव को जिस प्रकार के शरीर को प्राप्त करना है उसका पूर्ण आकार-प्रकार बन जाना। जिन्हें शरीर की पूर्णता प्राप्त हो चुकी है वे 'पर्याप्तक' कहलाते हैं और जिन्हें शरीर की पूर्णता प्राप्त नहीं हुई है वे 'अपर्याप्तक' कहलाते हैं । जैनदर्शन में छः पर्याप्तियाँ मानी गई हैं जिनकी मात्रा पृथक्-पृथक् जीवों में पृथक्-पृथक् निश्चित है। १. समुच्छिमा य मणुया गब्भवक्कतिया तहा ।
-उ० ३६.१६४.
तथा देखिए-भा० सं० ज०, पृ. २१८-२१६. २. पज्जन्तमपज्जत्ता एवमेव दुहा पुणो।
-उ० ३६.७०. तथा देखिए-उ० ३६.८४, ६२,१०८,११७ आदि । ३ आहारसरीरिदियपज्जत्ती आणपाणभासमणो । चत्तारि पंच छप्पि य एइंदियवियलसण्णीणं ॥
-गो० जी०, गाथा ११८ (टीका सहित)। .
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