________________
प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[ १२५ गति में सहायक धर्मद्रव्य, स्थिति में सहायक अधर्मद्रव्य और आधार में सहायक आकाश इन तीन द्रव्यों की कल्पना आवश्यक समझी गई। इस तरह ईश्वर तत्त्व को नियन्ता न मानने पर तीन द्रव्यों की कल्पना करने से द्रव्यों की संख्या पाँच हो गई। यह दश्यमान परिवर्तन भी सत्य है। अत: इस परिवर्तन के कारणभूत काल-द्रव्य की भी कल्पना करनी पड़ी और इस तरह द्रव्यों की संख्या कुल छः हो गई। चेतन जीव-द्रव्य को छोड़ कर शेष सभी के अचेतनरूप होने के कारण इन्हें दो भागों में विभक्त कर दिया गया है। चूंकि ये पांचों प्रकार के अचेतन-द्रव्य किसी एक द्रव्य से नहीं निकले हैं। अतः इनकी संख्या दो मानकरके भी मुख्यतः छः मानी गई है। यदि ऐसा न माना जाएगा तो अस्तिकाय-अनस्तिकाय, एकत्वविशिष्ट-बहत्वविशिष्ट, लोकप्रमाण-लोकालोकप्रमाण आदि द्वैतात्मक प्रकार संभव होने से चेतन-जीवद्रव्य धर्मादिद्रव्यों की कोटि में आ जाएगा। इसीलिए अचेतन से पृथक चेतन द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करने के लिए अचेतन से पृथक् चेतन-द्रव्य माना गया है । यह दृश्यमान संसार भ्रमरूप नहीं है अपितु उतना ही सत्य है जितना दिखलाई पड़ता है। अतः चेतन के साथ अचेतनद्रव्य को भी स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त वैशेषिकों द्वारा माने गए वायु, दिशा आदि द्रव्यों को उपर्यक्त छः द्रव्यों में ही अन्तर्भूत माना गया है। ग्रन्थ में यद्यपि सिद्ध जीवों को ईश्वर स्थानापन्न माना गया है परन्तु वे सृष्टिकर्ता नहीं हैं क्योंकि वीतरागी होने से उन्हें संसार से कोई प्रयोजन नहीं है । वे मात्र अपने स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित आत्माएँ हैं। यदि सृष्टिकर्ता ईश्वर को मान लिया जाता तो चेतन, अचेतन और ईश्वर इन तीन द्रव्यों की ही स्थिति रहती या फिर ईश्वर के ही चेतन और अचेतन ये दो रूप मान लेने पर शंकराचार्य के ब्रह्माद्वैत की तरह एक ईश्वर-द्रव्य ही रह जाता। परन्तु ऐसा अभीष्ट न होने से और यथार्थवाद का चित्रण करने के कारण छः द्रव्यों की सत्ता मानी गई है। इनमें जीव द्रव्य प्रधान है क्योंकि उसके पूर्ण स्वातन्त्र्य को सिद्ध करने के लिए ही उसे अपने उत्थान एवं पतन का कर्ता तथा भोक्ता कहा गया है। इसीलिए जीव को अपने पुरुषार्थ द्वारा भगवान् बनने की
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org