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प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[ १२३ ध्रुवतारूप द्रव्य का सामान्य-लक्षण अवश्य पाया जाता है क्योंकि द्रव्य के सामान्य लक्षण के अभाव में उनमें द्रव्यता ही नहीं रह सकती है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने सत को द्रव्य का लक्षण स्वीकार करके उसे उत्पाद, विनाश और ध्रुवतारूप माना है।' जिन द्रव्यों में उत्पाद और विनाशरूप परिणाम स्पष्ट दिखलाई नहीं पड़ते हैं उनमें भी समानाकाररूप परिणाम जैन-दर्शन में स्वीकार किया गया है। यदि द्रव्य को एकान्ततः नित्य या अनित्य माना जाएगा तो प्रत्यक्ष दृश्यमान वस्तुव्यवस्था संगत नहीं हो सकेगी क्योंकि हम देखते हैं कि प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहने पर भी उसका सर्वथा अभाव नहीं होता है अपितु एक अवस्था (पर्याय) से दूसरी अवस्था की प्राप्ति होती है और द्रव्य अपने मूलरूप में हमेशा बना रहता है। केवल उसकी पर्यायों में ही परिवर्तन होता है। आज का विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है। इस तरह द्रव्य के लक्षण में एकान्तवादियों (नित्यानित्यवादियों का समन्वय किया गया है ।
| গুনুন। इस प्रकरण में तीन मुख्य सिद्धान्तों की चर्चा की गई है : १. विश्व की भौगोलिक रचना किस प्रकार की है, २. विश्व की रचना में कितने मूल द्रव्य कार्य करते हैं तथा ३. द्रव्य का स्वरूप क्या है ?
१. विश्व की रचना सम्बन्धी वर्णन देखने से प्रतीत होता है कि यह विश्व यद्यपि असीम है परन्तु जितने भाग में जीवादि छः द्रव्यों की सत्ता मौजूद है उसकी एक सीमा है जिस सीमा का आकाश के अतिरिक्त कोई भी द्रव्य उल्लङघन नहीं करता है। इसी अपेक्षा से इस विश्व को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया गया है : लोक और अलोक । लोक वह भाग है जहाँ जीवादि द्रव्यों की सत्ता है और अलोक वह प्रदेश है जहाँ आकाश के १. देखिए-पृ० ११८, पा० टि० २. २. तद्भावः परिणामः ।
-त० सू० ५.४२.
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