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प्रकरण १ : द्रव्य- विचार
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'जो द्रव्याश्रित तो हों परन्तु स्वतः निर्गुण हों ।" ये गुण द्रव्य के सहभावी नित्य धर्म हैं तथा द्रव्य के स्वरूपाधायक भी हैं । अतः गुण और द्रव्य को सर्वथा भिन्न या अभिन्न न मानकर शक्ति और शक्तिमान की तरह भिन्नाभिन्न समझना चाहिए । पर्याय :
द्रव्य और गुण इन दोनों के आश्रित रहने वाले धर्म को पर्याय कहा गया है । 3 पर्याएँ द्रव्य और गुण की विभिन्न अवस्थाएँ हैं । गुण और पर्यायों में मुख्य अन्तर यह है कि गुण ( वस्तुत्व, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि) सम्पूर्ण द्रव्य और उसकी समस्त पर्यायों में व्याप्त होकर रहते हैं परन्तु पर्याएँ नहीं । अर्थात् गुणद्रव्य के साथ सदा रहते हैं और पर्याएँ द्रव्य में सदा एकरूप से नहीं रहती हैं अपितु क्रम-क्रम से बदलती रहती हैं। गुणों की तरह पर्यायों की भी कोई नियत सीमा नहीं है । ये प्रतिक्षण उत्पन्न और विनष्ट होती रहती हैं । कुछ पर्याएँ जो एक क्षण से अधिक समय तक ठहरती हैं उनकी अवान्तर पर्याएं भी होती हैं । इस तरह पर्याएँ द्रव्याश्रित और गुणाश्रित की तरह पर्यायाश्रित भी होती हैं । दीर्घकाल स्थायी पर्याय जो अन्य पर्यायों की आश्रय है किसी न किसी गुण या द्रव्य के आश्रित अवश्य रहती है । अत: पर्याय
१. द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।
- त० सू० ५४१.
२. जदि हवदि दव्व मण्णं गुणदो य गुणा य दव्वदो अण्णे । दव्वाणंतियमघवा दव्वाभावं पकुब्वंति ॥
अविभत्तमण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं । • णिच्छति णिच्चय विवरीदं हि वा तेसि ||
- पंचास्तिकाय, गाथा ४४-४५.
२. देखिए - पृ० १२०, पा० टि० १. ४. यावद्द्रव्यभाविनः सकलपर्यायानुवर्तिनो गुणाः वस्तुत्व-रूप-रस- गन्धस्पर्शादयः । मृद्रव्यसम्बन्धिनो हि वस्तुत्वादयः पिण्डादिपर्यायाननुवर्त्तन्ते, न तु पिण्डादयः स्थासादीन् । तत एव पर्यायाणां गुणेभ्यो भेदः । यद्यपि सामान्यविशेषी पर्यायी तथापि सङ्केतग्रहण निबन्धनत्वाच्छब्दव्यवहारविषयत्वाच्चागमप्रस्तावे तयोः पृथग्निर्देशः ।
- या यदीपिका, पृ० १२१-१२२.
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