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८०] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन ___ ४. कालद्रव्य-द्रव्यों में होनेवाले परिवर्तन से जो समय की गणना की जाती है उसे 'वर्तना' कहते हैं और वर्तना (वस्तुमात्र के परिवर्तन में कारण होना) काल का लक्षण है।' सब द्रव्यों के परिवर्तन (परिणमन) में कारण कालद्रव्य ही है। जैन साहित्य में काल के दो भेद किए गए हैं-१. निश्चयकाल और २. व्यवहारकाल ।२ ग्रन्थ में काल को जो ढाई-द्वीपप्रमाण (समयक्षेत्रिक) कहा गया है वह व्यवहारकाल की दृष्टि से कहा गया है क्योंकि परिवर्तन तो सब क्षेत्रों में प्रतिसमय होता रहता है और उसकी (निश्चयकाल की) द्रव्यात्मक सत्ता समस्त लोक में व्याप्त है। ग्रन्थ में व्यवहारकाल की ही दृष्टि से काल को 'अद्धासमय'3 भी कहा गया है। काल के जितने भी भेद संभव हैं वे सब व्यवहार की दृष्टि से ही संभव हैं क्योंकि कालके परमाणुरूप होने से ग्रन्थ में अनंत संख्यावाले काल का एक ही भेद गिनाया है। बौद्ध और वैशेषिक-दर्शन में भी काल का व्यवहार होता है। बौद्धदर्शन में काल स्वभावसिद्ध द्रव्य नहीं है। वह मात्र व्यावहारिक काल है।५ वैशेषिकदर्शन में काल , व्यापक और एक
१. वत्तणा लक्खणो कालो।।
-उ० २८.१०. २. भा० सं० जे०, पृ० २२२; त० सू० ५.३६-४० (सर्वार्थसिद्धि टीका)। ३. यह देशज शब्द है । इसका अर्थ है-सूर्य आदि की क्रिया (परिभ्रमण) से अभिव्यक्त होनेवाला समय ।
-पाइअसद्दमहण्णवो, पृ० ५२. काल शब्दो हि वर्णप्रमाणकालादिष्वपि वर्तते, ततोऽद्धाशब्देन विशिष्यत इति, अयं च सूर्यक्रियाविशिष्टो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्ती समयादिरूपोऽवसेयः । - स्थानाङ्ग-सूत्र (४.१.२६४) वृत्ति, पत्र १६० (उधृत-उत्तरज्झयणाणि भाग २, आ० तुलसी, पृ० ३१५, पा० टि० १.
तथा देखिए-पृ० ७५ पा० टि० ३. ४. देखिए-पृ० ६४, पा० टि० १. ५. सो पनेस सभावतो अविज्जमानत्ता पत्तिमत्तको एवा ति वेदितव्यो ।
-अट्ठशालिनी १.३.१६.
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