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प्रकरण १ : द्रव्य-विचार
[८१ है। परन्तु उत्तराध्ययन में काल अणुरूप और अनेक संख्यावाला है। कुछ श्वेताम्बर जैन-आचार्य काल की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार नहीं करते हैं। ___ इस तरह इन पाँचों प्रकार के रूपी और अरूपी अचेतन-द्रव्यों में पुद्गल-द्रव्य को छोड़कर शेष चार द्रव्य भावात्मक, निष्क्रिय और अरूपी हैं । पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जिसे हम देख सकते हैं, और स्पर्श आदि भी कर सकते हैं। इसका जीव के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है और जीवों के विभाजन आदि का आधार भी यही है ।
चेतनद्रव्य-जीव : ___ अचेतन-द्रव्य के अतिरिक्त जिस द्रव्य की सत्ता है उसका नाम है-जीव । जीव से तात्पर्य है जिसमें देखने एवं जानने की शक्ति हो ऐसा चेतनात्मक द्रव्य । चैतन्य के होने पर ही होने वाले परिणाम को या चैतन्य को ही उपयोग कहते हैं। अतः ग्रन्थ में जीव का लक्षण उपयोग (चेतना) बतलाया है। जैनदर्शन में यह उपयोग मुख्य रूप से दो प्रकार का माना गया है : दर्शनोपयोग (निराकारज्ञान-स्वसंवेदनात्मक) और ज्ञानोपयोग (साकारज्ञान-परसंवेदनात्मक)।' दर्शन शब्द का अर्थ है-किसी वस्तु का सामान्य अवलोकन करना। ज्ञान शब्द का अर्थ है• किसी वस्तु के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त करना। अतः ज्ञान
के पहले दर्शन अवश्य होता है। यहाँ पर दर्शनोपयोग से तात्पर्य है स्व का निराकार संवेदन होना और ज्ञानोपयोग से तात्पर्य है स्व और पर का साकार बोध होना। जिसमें ज्ञान-दर्शनरूप चेतना १. अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः । स चैको विभुनित्यश्च ।
-तर्क सं०, पृ० ६. २. जनदर्शन-महेन्द्रकुमार, पृ. १६३. ३. जीवो उवओगलक्खणो।
-उ० २८.१०. ४. उपयोगो लक्षणम् । स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।
-त० सू० २.८-६.
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