________________
७८]
उत्तराध्ययन-सूत्र: एक परिशीलन हैं, बैठते हैं, चलते हैं, सोते हैं, सर्वत्र आकाश है । अलोक में भी ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ आकाश न हो। ऐसे द्रव्य की सत्ता स्वीकार कर लेने से द्रव्य अनाधार नहीं रहते हैं अन्यथा आधार के विना आधेय कहाँ रहेंगे ? सर्वशक्तिसम्पन्न ईश्वर-द्रव्य को स्वीकार कर लेने पर ऐसे द्रव्य की कल्पना निरर्थक थी। यद्यपि बौद्ध, वैशेषिक, सांख्य और वेदान्त दर्शनों में भी आकाश-द्रव्य माना गया है परन्तु प्रकृत ग्रन्थ में स्वीकृत आकाश-द्रव्य से वहां भिन्नता है। बौद्धदर्शन में आकाश का स्वरूप आवरणाभाव माना है. तथा उसे असंस्कृत-धर्मों (जिनमें उत्पाद-विनाश नहीं होता) में गिनाया है। परन्तु उत्तराध्ययन में आकाश को अभावात्मक स्वीकार नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त आकाश को असंस्कृतधर्म भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि उस में उत्पाद-विनाश और स्थिरतारूप द्रव्य का सामान्य लक्षण पाया जाता है। द्रव्य के इस स्वरूप का आगे विचार किया जाएगा। वैशेषिकदर्शन में आकाश को यद्यपि एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है परन्तु वहाँ शब्द-गुण के जनक को आकाश कहा गया है। इसके अतिरिक्त 'दिशा' को आकाश से पृथक माना गया है। उत्तराध्ययन में 'दिशा' को आकाश से पृथक् नहीं माना गया है क्योंकि आकाश के प्रदेशों में ही दिशा की कल्पना की जाती है। इसके अतिरिक्त आकाश शब्द-गुण का जनक नहीं हो सकता है क्योंकि शब्द मूर्तिक पुद्गल विशेष है और आकाश अमूर्तिक द्रव्य है। अमूर्तिक द्रव्य मूर्तिक का जनक कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार प्रकृति (अचेतन ) का विकार या ब्रह्म का विवर्त भी आकाश नहीं हो सकता है क्योंकि आकाश एक स्वतन्त्र द्रव्य है। १. बौ० द०, पृ० २३६. २. तत्र द्रव्याणि पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि नवैव ।...."
शब्दगुणकमाकाशम् । तच्चैकं विभुनित्यं च । प्राच्यादिव्यवहारहेतुर्दिक् ।
. -तर्क सं०, पृ० २,६. २. आकाश को वेदान्तदर्शन में ब्रह्म का विवर्त तथा सांख्यदर्शन में प्रकृति का विकार माना गया है।
-देखिए-वेदान्तसार, पृ० ३२; सां० का०, श्लोक ३.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org