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समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. १ संयमस्य रूक्षत्वनिरूपणम् ११
अन्वयार्थः -- (गिमाहितावेणं) ग्रीष्माभितापेन = ग्रीष्मकालिकौणेन (१हे) स्पृष्टः (त्रिमणे ) विमनाः = खिन्नान्तःकरणः (सुपिवासिए) सुविपासितः = तृपार्टीदोनो भवति (तत्थ ) तत्र ग्रीष्मोपसर्गं प्राप्ताः सन्तः (मंदा) मन्दाः = कातराः ( वसीयत) विषीदन्ति (अपोदर) अल्पोदके ( जहा मच्छा) यथा मत्स्या विषीदन्ति तथैवेति ||५||
शीतस्पर्श का परीषह दुःखजनक होता है, यह कह कर अब उerate की दुस्सहता का निरूपण करते हैं
शब्दार्थ - ' गिम्हा हितावेणं - ग्रीष्माभितापेन' ग्रीष्म ऋतु के अभिताप से अर्थात् गर्मी से 'पुट्ठे-स्पृष्टः' स्पर्श पाया हुवा विमणे- विमनः ' खिन्न अन्तःकरणवाले अर्थात् उदास 'सुपिवालिए- सुपिपासितः' और प्यास से युक्त होकर पुरुष दीन हो जाता है, 'तत्थ तत्र' इस प्रकार गर्मी का परीषद प्राप्त होने पर 'मंदा - मन्दा' कायर पुरुष 'विसीयंतिविषीदन्ति' इस प्रकार विषाद को अनुभव करते हैं, 'अप्पोदए- अल्पो दके' थोडे जलमें 'जहा मच्छा-यथा मत्स्याः' जैसे मछली विषाद का अनुभव करती है ॥५॥
अन्वयार्थ - ग्रीष्मकाल की उष्णता से स्पृष्ट हुआ साधु खिन्न चित्त और पिपासा से पीडित होता है। गर्मी के परीषह को प्राप्त कायर जन उसी प्रकार छटपटाते हैं जैसे विना पानी की मछली ॥ ५ ॥
શીતપના પરીષહુ દુ:ખજનક હોય છે. તે પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર ઉષ્ણુસ્પેશની દુસહતાનું નિરૂપણ કરે છે—
शब्दार्थ –' गिम्हा हितावेणं - ग्रीष्माभितापेन' ग्रीष्म ऋतुना खलितायथी अर्थात् अभी थी 'पुट्ठे-स्पृष्टः' स्पर्श' पास 'विमणे - त्रिमन: ' जिन्न अन्त: उरवाणी अर्थात् उहास 'सुपित्रासिए - सुपिपासितः' भने तरसधी युक्त थने ३ष हीन था लय छे. 'तत्थ - तत्र' આ પ્રકારે ગમી પરીષહું પ્રાપ્ત थवाथी मंदा - मन्दाः ' भूढ ५३ष 'विखीयंति - विषीदन्ति' सेवा प्रहारना विषाहनो अनुभव रे छे. 'अप्पादए - अल्पोदके' थोडा पाणीमां 'जहा मच्छा- यथा मत्स्याः ' જેવી રીતે માછલી વિષાદના અનુભવ કરે છે. પા
સૂત્રા –જેવી રીતે પાણી વિના માછલી તરફડે છે, એજ પ્રકારે ગ્રીષ્મ કાળની ઉષ્ણતાથી પૃષ્ટ થયેલા અને પિપાસાથી વ્યાકુળ થયેલે ખિન્નતાના અનુભવ કરે છે, પા
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