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[ पट्टावलो-पराग
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से ६० वर्ष व्यतीत होने के बाद नन्द को पाटलीपुत्र के राज्य पर बैठकर १५५ में चन्द्रगुप्त को उस गादी पर बैठाने का अर्थ तो यही हो सकता है, कि नन्द ने पाटलीपुत्र पर केवल ७४ वर्ष ही राज्य किया था, परन्तु पौराणिक तथा जैन गणनामों के अनुसार यह मान्यता असंगत प्रमाणित होती है। पुराणों में 'बिम्बसार-श्रेणिक के उत्तराधिकारी अजातशत्रु' का राज्यकाल ३७, वंशक का २४, उदायिन् का ३३, नन्दिवर्द्धन का ४२, महानन्दिन का ४३ और नव नन्दों का १०० वर्ष का माना है। श्रमरणभगवन्त महावीर अजातशत्रु के राज्य के २२वें वर्ष में निर्वाण प्राप्त हुए थे, अतः उसके राजत्वकाल में से २२ वर्ष कम करने पर भी भगवान् महावीर के निर्वाण से २५७ वर्ष में मौर्य राज्य का प्रारम्भ पाता है, जब कि प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजो नन्दों का राज्य समाप्त कर १५५ में ही चन्द्रगुप्त को मगध की गद्दी पर बैठाते हैं। संशोधित जैनकाल गणना के अनुसार नन्दों के राज्य की समाप्ति २१० वर्ष में होती है और मौर्य चन्द्रगुप्त मगध का राजा बनता है। बौद्धों की गणनानुसार मौर्य राज्य का समय जल्दी आता है, परन्तु इस विषय को बौद्ध काल-गणना सर्वथा अविश्वसनीय है, क्योंकि सुदूर लंका में बैठे हुए बौद्ध स्थविरों ने जो कुछ सुना उसी को लेखबद्ध कर दिया, औचित्य अथवा संगति का कुछ भी विचार नहीं किया। उदाहरणस्वरूप हम नवनन्दों के राजत्वकाल के सम्बन्ध में ही दो शब्द कहते हैं ।
बौद्धों ने नवनन्दों का राज्यकाल केवल २२ वर्ष लिखा है, जो किसी प्रकार से ग्राह्य नहीं हो सकता।
जिस प्रकार राजाओं के राजत्वकाल के सम्बन्ध में लेखकों की पसावधानी से समय विषयक अनेक अशुद्धियां होने पाई हैं, उसी प्रकार स्थविरों की काल-गणना में भी लेखकों के प्रमाद से अशुद्धियां घुस गई हैं जिनके कारण से कई बातों में विसंवाद उपस्थित होते हैं।
ऊपर हमने स्थविरों के काल सम्बन्धी जो गाथाएँ लिखी हैं उनमें आर्य सम्भूतविजयजी के पुगप्रधानत्व समय में लेखकों ने बड़ा घोटाला कर
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