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प्रथम-परिच्छेद ]
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वलभी के पुस्तक लेखन में माथुरी वाचना को मुख्य माना था, अतः समय के निर्देश में :
"समरणस्स भगवनो महावीरस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीरणस्स नव वाससयाई विइक्कताई दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छई"
इस प्रकार माथुरी-वाचना की कालविषयक मान्यता का प्रथम निर्देश किया, परन्तु वालभ्य वाचना वाले अपनी मान्यता को गलत मानकर उक्त मान्यता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए, परिणामस्वरूप :
"वायरणंतरे पुरण अयं तेरणउए संवच्छरे काले गच्छइ इइ वीसइ ।"
यह सूत्रान्तर लिख कर वालभ्य संघ की मान्यता का भी उल्लेख करना पड़ा।
ऊपर जिन गाथानों द्वारा हमने दोनों स्थविरावलियों की कालविषयक मान्यता का प्रतिपादन किया है, वे गाथाएं प्राचीन होने पर भी उनमें कई स्थानों में संशोधन करना पड़ा है।
राजकाल गणना सम्बन्धी "तित्थिोगालीपयन्ना" की गाथामों में एक दो स्थानों पर परिमार्जन करना पड़ा है। नन्दों की वर्षगणना में ५ वर्ष कम किये हैं, "पणपन्नसयं" के स्थान में "पुरण पण्णसयं", "अट्ठसयं मुरियाणं" के स्थान में "सट्ठिसयं मुरियाणं", "तीसा पुण पूसमित स्स" के स्थान में "पणतीसा पूसमित्तस्स" करके पुस्तकलेखकों द्वारा प्रविष्ट अशुद्धियों का परिमार्जन किया है।
गाथा के अशुद्ध पाठानुसार नन्दों का काल १५५ प्रौर मौर्यों का काल १०८ वर्ष परिमित माना जाता था, जो ठीक नहीं था। गणनाविषयक इस गड़बड़ो के कारण से ही प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजी ने "परिशिष्ट पर्व" में चन्द्रगुप्त मौर्य को वीरनिर्वाण से १५५ में मगध के साम्राज्य पर आसीन होने का लिखा है जो प्रसंगत है, क्योंकि जिननिर्वाण
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